Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
पंचम शतक : उद्देशक-९]
[५२१ चातुर्याम एवं सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत में अन्तर–सर्वथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान और बहिद्धादान का त्याग चातुर्याम धर्म है, और सर्वथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से विरमण पंचमहाव्रत धर्म है। बहिद्धादान में मैथुन और परिग्रह दोनों का समावेश हो जाता है। इसलिए इन दोनों प्रकार के धर्मों में विशेष अन्तर नहीं है। भरत और ऐरवत क्षेत्र के २४ तीर्थंकरों में से प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के सिवाय बीच के २२ तीर्थंकरों के शासन में तथा महाविदेह क्षेत्र में चातुर्याम प्रतिक्रमणरहित (कारण होने पर प्रतिक्रमण) धर्म प्रवृत्त होता है, किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शासन में सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत धर्म प्रवृत्त होता है।
१७. कइविहा णं भंते! देवलोगा पण्णत्ता ?
गोयमा! चउव्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहा—भवणवासी-वाणमंतर-जोइसियवेमाणिय भेएणं। भवणवासी दसविहा, वाणमंतरा अट्ठविहा, जोइसिया पंचविहा, वेमाणिया दुविहा।
[१७ प्र.] भगवन् ! देवगण कितने प्रकार के कहे गए हैं ?
[१७ उ.] गौतम! देवगण चार प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं-भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के भेद से (चार प्रकार होते हैं।) भवनवासी दस प्रकार के हैं। वाणव्यन्तर आठ प्रकार के हैं, ज्योतिष्क पांच प्रकार के हैं और वैमानिक दो प्रकार के हैं।
विवेचन देवलोक और उसके भेद-प्रभेदों का निरूपण—प्रस्तुत सूत्र में देवगण के मुख्य चार प्रकार और उनमें से प्रत्येक के प्रभेदों का निरूपण किया गया है।
देवलोक का तात्पर्य प्रस्तुत प्रसंग में देवलोक का अर्थ देवों का निवासस्थान या देवक्षेत्र नहीं, अपितु देव-समूह या देवनिकाय ही यथोचित है; क्योंकि यहाँ प्रश्न के उत्तर में देवलोक के भेद न बताकर देवों के भेद-प्रभेद बताए हैं। तत्त्वार्थसूत्र में देवों के चार निकाय बताए गए हैं।
भवनवासी देवों के दस भेद–१. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुवर्ण (सुवर्ण) कुमार, ४. विद्युत्कुमार, ५. अग्निकुमार, ६. द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, ८. दिशाकुमार, ९. पवनकुमार और १०. स्तनितकुमार।
१. (क) भगवती० हिन्दी विवेचन भा. २ पृ. ९२७, (ख) भगवती. अ. वृत्ति. पत्रांक २४९
(ग) सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं। (घ) मूलपाठ के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर एवं अर्हत् पार्श्वनाथ एक ही परम्परा के तीर्थंकर
हैं, यह तथ्य पापित्य स्थविरों को ज्ञात न था। इसी कारण प्रथम साक्षात्कार में वे भगवान महावीर के पास आकर वन्दना-नमस्कार किये बिना अथवा विनय भाव व्यक्त किये बिना ही उनसे प्रश्न पूछते हैं।
–जैनसाहित्य का बृहत् इतिहास भा. १ पृ. १९७ २. (क) 'देवाश्चतुर्निकायाः' तत्त्वार्थसूत्र अ. ४ सू. १ (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. २, पृ. ९२९