Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 547
________________ ५०६] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र. । [१६-१] जिस प्रकार नैरयिक जीवों की वृद्धि-हानि के विषय में कहा है, उसी प्रकार असुरकुमार देवों की वृद्धि-हानि के सम्बन्ध में समझना चाहिए। असुरकुमार देव जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट ४८ मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। [२] एवं दसविहा वि। [१६-२] इसी प्रकार दस ही प्रकार के भवनपतिदेवों की वृद्धि, हानि और अवस्थिति का कथन करना चाहिए। १७. एगिंदिया वड्ढेति वि, हायंति वि, अवट्ठिया वि। एतेहिं तिहि वि जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभागं। [१७] एकेन्द्रिय जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। इन तीनों (वृद्धिहानि-अवस्थिति) का काल जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः आवलिका का असंख्यातवां भाग (समझना चाहिए)। १८.[१] बेइंदिया वड्ढेति हायंति तहेव अवट्ठिता जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो अंतोमुहुत्ता। [१८-१] द्वीन्द्रिय जीव भी इसी प्रकार बढ़ते-घटते हैं। इनके अवस्थान-काल में भिन्नता इस प्रकार है—ये जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः दो अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। [२] एवं जाव चतुरिंदिया। [१८-२] द्वीन्द्रिय की तरह त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों तक(का वृद्धि-हानि-अवस्थितिकाल) कहना चाहिए। १९. अवसेसा सव्वे वड्ढंति, हायंति तहेव। अवट्ठियाणं णाणत्तं इमं, तं जहासम्मुच्छिम-पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दो अंतोमुहुत्ता। गब्भवक्कंतियाणं चउव्वीसं मुहुत्ता। सम्मुच्छिममणुस्साणं अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता। गब्भवक्कंतियमणुस्साणं चउव्वीसं मुहुत्ता। वाणमंतर-जोतिस-सोहम्मीसाणेसु अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता। सणंकुमारे अट्ठारस रातिंदियाई चत्तालीस य मुहुत्ता। माहिंदे चउवीसं रातिदियाई, वीस य मुहुत्ता। बंभलोए पंच चत्तालीसं रातिंदियाइं।लंतए नउतिं रातिंदियाई।महासुक्के सटुं रातिंदियसतं।सहस्सारे दो रातिंदियसताई। आणय-पाणयाणं संखेज्जा मासा। आरणऽच्चुयाणं संखेज्जाइं वासाइं। एवं गेवेज्जगदेवाणं। विजय-वेजयंत-जयंत अपराजियाणं असंखिज्जाइं वाससहस्साइं। सव्वट्ठसिद्धेय पलिओवमस्स संखेज्जतिभागो।एवं भाणियव्वं-वड्ढंति हायंति जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभागं; अवट्ठियाणं जं भणियं। [१९] शेष सब जीव (तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर देव, ज्योतिष्क देव और वैमानिक देव), बढ़ते-घटते हैं, यह पहले की तरह ही कहना चाहिए। किन्तु उनके अवस्थान-काल में इस प्रकार

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