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पंचम शतक : उद्देशक-८]
[५०५ १४. जीवा णं भंते! केवतियं कालं अवट्ठिता ? गोयमा! सव्वद्धं। [१४ प्र.] भगवन्! जीव कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ?
[१४ उ.] गौतम! सर्वाद्धा (अर्थात् सब काल में जीव अवस्थित हो रहते हैं)। चौबीस दण्डकों की वृद्धि, हानि और अवस्थित कालमान की प्ररूपणा
१५.[१] नेरतिया णं भंते! केवतियं कालं वड्ढेति ? गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभागं। [१५-१ प्र.] भगवन्! नैरयिक कितने काल तक बढ़ते हैं ?
[१५-१ उ.] गौतम! नैरयिक जीव जघन्यतः एक समय तक, और उत्कृष्टतः आवलिका के असंख्यात भाग तक बढ़ते हैं।
[२] एवं हायंति।
[१५-२] जिस प्रकार बढ़ने का काल कहा है, उसी प्रकार घटने का काल भी (उतना ही) कहना चाहिए।
[३] नेरइया णं भंते! केवतियं कालं अवट्ठिया ? गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। [१५-३ प्र.] भगवन् ! नैरयिक कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ?
[१५-३ उ.] गौतम! (नैरयिक जीव) जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः चौबीस मुहूर्त तक (अवस्थित रहते हैं।)
[४] एवं सत्तसुवि पुढवीसु'वड्ढंति, हायंति' भाणियव्वं । नवरं अवट्ठितेसुइमं नाणत्तं, तं जहा–रयणप्पभाए पुढवीए अडतालीसं मुहुत्ता, सक्करप्पभाए चाोद्दस राइंदियाइं, वालुयप्पभाएमासं, पंकप्पभाए दो मासा,धूमप्पभाए चत्तारिमासा, तमाए अट्ठमासा, तमतमाए बारस मासा।
[१५-४] इसी प्रकार सातों नरक-पृथ्वियों के जीव बढ़ते हैं, घटते हैं, किन्तु अवस्थित रहने के काल में इस प्रकार भिन्नता है, यथा-रत्नप्रभापृथ्वी में ४८ मुहूर्त का, शर्कराप्रभापृथ्वी में चौदह अहोरात्रि का, बालुकाप्रभापृथ्वी में एक मास का, पंकप्रभा में दो मास का, धूमप्रभा में चार मास का, तमःप्रभा में आठ मास का और तमस्तमःप्रभा में बारह मास का अवस्थान-काल है।
१६.[१] असुरकुमारा वि वड्दति हायंति, जहा नेरइया। अवट्ठिता जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्ठचालीसं मुहुत्ता।
१. रत्नप्रभा आदि में उत्पाद-उद्वर्तन-विरहकाल ४४ मुहूर्त आदि बताया गया है, उसके लिए देखें-प्रज्ञापनासूत्र का
छठा व्युत्क्रान्ति पद। -सं.