Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 548
________________ पंचम शतक : उद्देशक - ८ ] [५०७ भिन्नता है, यथा— सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों का ( अवस्थानकाल) दो अन्तर्मुहूर्त्त का; गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का चौबीस मुहूर्त्त का सम्मूच्छिम मनुष्यों का ४८ मुहूर्त्त का, गर्भज मनुष्यों का चौबीस मुहूर्त्त का, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान देवों का ४८ मुहूर्त्त का, सनत्कुमार देवों का अठारह अहोरात्रि तथा चालीस मुहूर्त्त का अवस्थानकाल है। माहेन्द्र देवलोक के देवों का चौबीस रात्रिदिन और बीस मुहूर्त्त का ब्रह्मलोकवर्ती देवों का ४५ रात्रिदिवस का, लान्तक देवों का ९० रात्रिदिवस का, महाशुक्र-देवलोकस्थ देवों का १६० अहोरात्र का, सहस्रार देवों का दो सौ रात्रि दिन का, आनत और प्राणत देवलोक के देवों का संख्येय मास का, आरण और अच्युत देवलोक के देवों का संख्येय वर्षों AIT अवस्थान - काल है। इसी प्रकार नौ ग्रैवेयक देवों के ( अवस्थान - काल के) विषय में जान लेना चाहिए । विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानवासी देवों का अवस्थानकाल असंख्येय हजार वर्षों का है। तथा सर्वार्थसिद्ध-विमानवासी देवों का अवस्थानकाल पल्योपम का संख्यातवाँ भाग है। और ये सब जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग तक बढ़तेघटते हैं; इस प्रकार कहना चाहिए, और इनका अवस्थानकाल जो ऊपर कहा गया है, वही है । २०. [ १ ] सिद्धाणं भंते! केवतियं कालं वड्ंति ? गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्ठ समया । [२०-१ प्र.] भगवन्! सिद्ध कितने काल तक बढ़ते हैं? [२०-१ उ.] गौतम! जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः आठ समय तक सिद्ध बढ़ते हैं । [ २ ] केवतियं कालं अवट्ठिया ? गोयमा ! जहन्त्रेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं छम्मासा । [२०-२ प्र.] भगवन्! सिद्ध कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? [२०-२ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक सिद्ध अवस्थित रहते हैं। विवेचन संसारी और सिद्ध जीवों की वृद्धि, हानि और अवस्थिति एवं उनके कालमान की प्ररूपणा — प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. १० से २० तक) में समस्त जीवों की वृद्धि, हानि एवं अवस्थिति तथा इनके काल-मान की प्ररूपणा की गई है। वृद्धि, हानि और अवस्थिति का तात्पर्य — कोई भी जीव जब बहुत उत्पन्न होते हैं और थोड़े मरते हैं, तब 'वे बढ़ते हैं', ऐसा व्यपदेश किया जाता है, और जब वे बहुत मरते हैं और थोड़े उत्पन्न होते हैं, तब 'वे घटते हैं', ऐसा व्यपदेश किया जाता है। जब उत्पत्ति और मरण समान संख्या में होता है, अर्थात् जितने जीव उत्पन्न होते हैं, उतने ही मरते हैं, अथवा कुछ काल तक जीव का जन्म-मरण नहीं होता, तब यह कहा जाता है कि 'वे अवस्थित हैं ।' उदाहरणार्थ नैरयिक जीवों को अवस्थान काल २४ मुहूर्त्त का कहा गया है। वह इस प्रकार

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