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पंचम शतक : उद्देशक-७]
[४९७ मरण मरता है।
४४. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा—अहेउणा न जाणइ जाव अहेउणा छउमत्थमरणं मरइ। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
॥ पंचमसए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो॥ [४४] पांच अहेतु-कहे गए हैं—(१) अहेतु से नहीं जानता, यावत् (५) अहेतु से छद्मस्थमरण मरता है।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् श्री गौतमस्वामी विचरण करते हैं।
विवेचन विविध अपेक्षाओं से पांच हेतु-अहेतुओं का निरूपण—प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. ३७ से ४४) द्वारा शास्त्रकार ने भिन्न-भिन्न दृष्टियों से, तथा विभिन्न क्रियाओं की अपेक्षा से पांच प्रकार के हेतुओं और पांच प्रकार के अहेतुओं का तात्त्विक निरूपण किया है।
हेतु-अहेतु विषयक सूत्रों का रहस्य प्रस्तुत आठ सूत्र; हेतु को, हेतु द्वारा; अहेतु को, अहेतु द्वारा इत्यादि रूप से कहे गए हैं। इनमें से प्रारम्भ के चार सूत्र छद्मस्थ की अपेक्षा से और बाद के ४ सूत्र केवली की अपेक्षा से कहे गए हैं। पहले के चार सूत्रों में से पहला-दूसरा सूत्र सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ की अपेक्षा से और तीसरा-चौथा सूत्र मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ की अपेक्षा से है। इन दो-दो सूत्रों में अन्तर यह है कि प्रथम दो प्रकार के व्यक्ति छद्मस्थ होने से साध्य का निश्चय करने के लिए साध्य से अविनाभूत कारण हेतु को अथवा हेतु से सम्यक् जानते हैं, देखते हैं, श्रद्धा करते हैं, साध्यसिद्धि के लिए सम्यक् हेतु प्रयोग करके वस्तुतत्त्व प्राप्त करते हैं, और सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ का मरण हेतुपूर्वक या हेतु से समझ कर होता है, अज्ञानमरण नहीं होता; जबकि आगे के दो सूत्रों से मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ हेतु को सम्यक्तया नहीं जानता-देखता, न ही सम्यक् श्रद्धा करता है, न वह हेतु का सम्यक् प्रयोग करके वस्तुतत्त्व को प्राप्त करता है और मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ होने के नाते सम्यग्ज्ञान न होने से अज्ञानमरणपूर्वक मरता है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ हेतु द्वारा सम्यक् ज्ञान और दर्शन नहीं कर पाता, न ही हेतु से सम्यक् श्रद्धा करता है, न हेतु के प्रयोग से वस्तुतत्त्व का निश्चय कर पाता है, तथा हेतु का प्रयोग गलत करने से अज्ञानमरणपूर्वक ही मृत्यु प्राप्त करता है। इसके पश्चात् पिछले चार सूत्रों में से दो सूत्रों में केवलज्ञानी की अपेक्षा से कहा गया है कि केवलज्ञानियों को सकल प्रत्यक्ष होने से उन्हें हेतु की अथवा हेतु द्वारा जानने (अनुमान करने) की आवश्यकता नहीं रहती। केवलज्ञानी स्वयं 'अहेतु' कहलाते हैं। अतः अहेतु से ही वे जानते-देखते हैं, अहेतु प्रयोग से ही वे क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं, इसलिए पूर्ण श्रद्धा करते हैं, वस्तुतत्त्व का निश्चय भी अहेतु से करते हैं, और अहेतु से यानी बिना किसी उपक्रम हेतु से नहीं मरते, वे निरुपक्रमी होने से किसी भी निमित्त से मृत्यु नहीं पाते। इसलिए अहेतु केवलिमरण है उनका।