Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आराधना होती है। इसी प्रकार क्रीतकृत से लेकर राजपिण्ड तक पूर्ववत् यावत् अनाराधना एवं आराधना जान लेनी चाहिए।
१८. 'आहाकम्मं णं अणवज्जे' त्ति बहुजणमझे पन्नवइत्ता भवति, से णं तस्स जाव' अत्थि आराहणा जाव रायपिंडं।
[१८] 'आधाकर्म अनवद्य है', इस प्रकार जो साधु बहुत-से लोगों के बीच में प्ररूपणा (प्रज्ञापना) करता है, उसके भी यावत् आराधना नहीं होती, तथा वह यावत् आलोचना-प्रतिक्रमण करके काल करता है, उसके आराधना होती है।
__इसी प्रकार क्रीतकृत से लेकर यावत् राजपिण्ड तक पूर्वोक्त प्रकार से अनाराधना होती है, तथा यावत् आराधना होती है।
विवेचन विविध प्रकार से आधाकर्मादि दोषसेवी साधु अनाराधक कैसे, आराधक कैसे?—प्रस्तुत चार सूत्रों में आधाकर्मादि दोष से दूषित आहारादि को निष्पाप समझने वाले, सभा में निष्पाप कहकर सेवन करने वाले, स्वयं वैसा दोषयुक्त आहार करने तथा दूसरे को दिलाने वाले, बहुजन समाज में आधाकर्मादि के निर्दोष होने की प्ररूपणा करने वाले साधु के विराधक एवं आराधक होने का रहस्य बताया गया है।
विराधना और आराधना का रहस्य आधाकर्म से लेकर राजपिण्ड तक में से किसी भी दोष का किसी भी रूप में मन-वचन-काया से सेवन करने वाला साधु यदि अन्तिम समय में उस दोषस्थान की आलोचना-प्रतिक्रमणादि किये बिना ही काल कर जाता है तो वह विराधक होता है, आराधक नहीं; किन्तु यदि पूर्वोक्त दोषों में से किसी दोष का किसी भी रूप में सेवन करने वाला साधु अन्तिम समय में उस दोष की आलोचना-प्रतिक्रमण कर लेता है, तो वह आराधक होता है। निष्कर्ष यह है कि दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमणादि न करके काल करने वाला साधु विराधक और आलोचनाप्रतिक्रमणादि करके काल करने वाला साधु आराधक होता है। आधाकर्मादि दोष निर्दोष होने की मन में धारणा बना लेना, तथा आधाकर्मादि के विषय में निर्दोष होने की प्ररूपणा करना विपरीत श्रद्धानादिरूप होने से दर्शन-विराधना है; इन्हें विपरीत रूप में जानना ज्ञान-विराधना है। तथा इन दोषों को निर्दोष कह कर स्वयं आधाकर्मादि आहारादि सेवन करना, तथा दूसरों को वैसा दोषयुक्त आहार दिलाना, चारित्रविराधना है।
आधाकर्म की व्याख्या-साधु के निमित्त से जो सचित्त को अचित्त बनाया जाता है, अचित्त दाल, चावल आदि को पकाया जाता है, मकान आदि बनाए जाते हैं, या वस्त्रादि बुनाए जाते हैं, उन्हें आधाकर्म कहते हैं। १. जाव पद से यहाँ 'अणालोइय' इत्यादि पद तथा 'आलोइय' इत्यादि पद कहने चाहिए। २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. २०९-२१० ३. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २३१ ४. "आधाकर्म-आधया साधुप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकम्
वयते वा वस्त्रादिकम्, तदाधाकर्म।" -भगवती.हि. विवेचन, भा. २, पृ.८६०