Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 516
________________ पंचम शतक : उद्देशक-६] [४७५ लेता) है, वह यदि उस आधाकर्म-स्थान की आलोचना (तदनुसार प्रायश्चित्त) एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है, तो उसके आराधना नहीं होती। [२] से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेति अत्थि तस्स आराहणा। [१५-२] वह (पूर्वोक्त प्रकार की धारणा वाला साधु) यदि उस (आधाकर्म-) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है। [३] एतेणं गमेणं नेयव्वं-कीयकडं ठवियगं रइयगं कंतारभत्तं दुब्भिक्खभत्तं वदलियाभत्तं गिलाणभत्तं सिज्जातरपिंडं रायपिंडं। [१५-३] आधाकर्म के (पूर्वोक्त) आलापकद्वय के अनुसार ही क्रीतकृत (साधु के लिए खरीद कर लाया हुआ), स्थापित (साधु के लिए स्थापित करके रखा हुआ) रचितक (साधु के लिये बिखरे हुए चूरे को मोदक के रूप में बांधा हुआ (औद्देशिक दोष का भेदरूप), कान्तारभक्त (अटवी में भिक्षुकों के निर्वाह के लिए तैयार किया हुआ आहार), दुर्भिक्षभक्त (दुष्काल के समय भिक्षुओं के लिए तैयार किया हुआ आहार), वर्दलिकाभक्त (आकाश में बादल छायें हों, घनघोर वर्षा हो रही हो, ऐसे समय में भिक्षुओं के लिए तैयार किया हुआ आहार), ग्लानभक्त (ग्लानरुग्ण के लिए बनाया हुआ आहार), शय्यातरपिण्ड (जिसकी आज्ञा से मकान में ठहरे हैं, उस व्यक्ति के यहाँ से आहा आहार लेना), राजपिण्ड (राजा के लिए तैयार किया गया आहार) इन सब दोषों से युक्त आहारादि के विषय में (आधाकर्म सम्बन्धी आलापकद्वय के समान ही) प्रत्येक के दो-दो आलापक कहने चाहिए।) १६.[१]'आहाकम्मं णं अणवजे' त्ति बहुजणमझे भासित्ता सयमेव परिभुंजित्ता भवति, से णं तस्स ठावस्स जाव' अत्थि तस्स आराहणा। [२] एयं पि तह चेव जाव रायपिंडं। [१६-१] आधाकर्म अनवद्य (निर्दोष) है, इस प्रकार जो साधु बहुत-से मनुष्यों के बीच में कह (भाषण) कर, स्वयं ही उस आधाकर्म-आहारादि का सेवन (उपभोग) करता है, यदि वह उस स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती, यावत् यदि वह उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसकें आराधना होती है। [१६-२] आधाकर्मसम्बन्धी इस प्रकार के आलापकद्वय के समान क्रीतकृत से लेकर राजपिण्डदोष तक पूर्वोक्त प्रकार से प्रत्येक के दो-दो आलापक समझ लेने चाहिए। १७. 'आहाकम्मं णं अणवजे'त्ति सयं अन्नमन्नस्स अणुप्पदावेत्ता भवति, से णं तस्स० एयं तह चेव जाव रायपिंडं। [१७] 'आधाकर्म अनवद्य है', इस प्रकार कह कर, जो साधु स्वयं परस्पर (भोजन करता है, तथा) दूसरे साधुओं को दिलाता है, किन्तु उस आधाकर्म दोषस्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना काल करता है तो उसके अनाराधना तथा यावत् आलोचनादि करके काल करता है तो उसके १. जाव' पद से यहाँ पूर्ववत् 'अणालोइय' का तथा 'आलोइय' का आलापक कहना चाहिए।

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