Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 514
________________ [ ४७३ पंचम शतक : उद्देशक- ६] का तथा कर्मबन्ध के हेतु अविरति परिणाम का सर्वथा त्याग कर दिया था । रजोहरण, पात्र, वस्त्र आदि साधु के उपकरणों से जीवदया आदि करने से रजोहरणादि के भूतपूर्व जीवों को पुण्यबन्ध नहीं होता, क्योंकि रजोहरणादि के जीवों के मरते समय पुण्यबन्ध के हेतुरूप विवेक, शुभ अध्यवसाय आदि नहीं होते । इसके अतिरिक्त अपने भारीपन आदि के कारण जब बाण नीचे गिरता है, तब जिन जीवों के शरीर से वह बाण बना है, उन्हें पांचों क्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि बाणादिरूप बने हुए जीवों के शरीर तो उस समय मुख्यतया जीवहिंसा में प्रवृत्त होते हैं, जबकि धनुष की डोरी, धनुःपृष्ठ आदि साक्षात् वधक्रिया में प्रवृत्त न होकर केवल निमित्तमात्र बनते हैं, इसलिए उन्हें चार क्रियाएँ लगती हैं। वीतराग सर्वज्ञ प्रभु ने जैसा अपने ज्ञान में देखा है, वैसा ही कहा है, इसलिए उनके वचन प्रमाण मान कर उन पर श्रद्धा करनी चाहिए । कठिन शब्दों के अर्थ परामुसइ - स्पर्श-ग्रहण करता है। उसु बाण। आययकण्णाययं= कान तक खींचा हुआ। वेहासं= आकाश में। उव्विहइ फेंकता है। जीवा = धनुष की डोरी (ज्या), ण्हारू = स्नायु । पच्चोवयमाणे=नीचे गिरता हुआ । २ अन्यतीर्थिकप्ररूपित मनुष्यसमाकीर्ण मनुष्यलोक के बदले नारकसमाकीर्ण नरकलोक की प्ररूपणा एवं नैरयिक- विकुर्वणा 1 १३. अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्कखंति जाव परूवेंति से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थे हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया एवामेव जाव चत्तारि पंच जोयणसताई बहुसमाइण्णो मणुयलोए मणुस्सेहिं । से कहमेतं भंते! एवं ? गोतमा ! जं णं ते अन्नउत्थिया जाव मणुस्सेहिं, जे ते एवमाहंसु मिच्छा० । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवामेव चत्तारि पंच जोयणसताइं बहुसमाइण्णे निरयलोए नेरइएहिं । [१३ प्र.] भगवन्! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई युवक अपने हाथ से युवती का हाथ (कस कर पकड़े हुए (खड़ा) हो, अथवा जैसे आरों से एकदम सटी ( जकड़ी) हुई चक्र ( पहिये) की नाभि हो, इसी प्रकार यावत् चार सौ-पांच सौ योजन तक यह मनुष्यलोक मनुष्यों से ठसाठस भरा हुआ है। भगवन् ! यह सिद्धान्त प्ररूपण कैसे है ? [१३ उ.] हे गौतम! अन्यतीर्थियों का यह कथन मिथ्या है। मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि चार सौ, पाँच सौ योजन तक नरकलोक, नैरयिक जीवों से ठसाठस भरा हुआ है। १४. नेरइया णं भंते ! किं एगत्तं पभू विउव्वित्तए ? पुहत्तं पभू विकुव्वित्तए ? जाव जीवाभिगमे आलावगो तहा नेयव्वो जाव दुरहियासं । [१४ प्र.] भगवन्! क्या नैरयिक जीव, एकत्व (एक रूप ) की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं, १. २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २३० वही, पत्रांक, २३०

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