Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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असद्भूत (असत्य) वचन है ।
२३. से किं खाति णं भंते! देवा ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा! देवा णं 'नोसंजया' ति वत्तव्वं सिया |
[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[२३ प्र.] भगवन्! तो फिर देवों को किस नाम से कहना (पुकारना) चाहिए ? [२३ उ.] गौतम! देवों को 'नोसंयत' कहा जा सकता है।
विवेचन देवों को संयत, असंयत और संयतासंयत न कह कर 'नोसंयत' - कथननिर्देश- प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. २० से २२ तक) में देवों को संयत, असंयत एवं संयतासंयत न कहने का कारण बताकर चतुर्थ सूत्र में 'नोसंयत' कहने का भगवान् का निर्देश अंकित किया गया है।
'देवों के लिए 'नोसंयत' शब्द उपयुक्त क्यों ? दो कारण (१) जिस प्रकार 'मृत' और 'दिवंगत' का अर्थ एक होते हुए भी 'मर गया' शब्द निष्ठर (कठोर) वचन होने से 'स्वर्गवासी हो गया' ऐसे अनिष्ठुर शब्दों का प्रयोग किया जाता है वैसे ही यहाँ 'असंयत' शब्द के बदले 'नोसंयत' शब्द का • प्रयोग किया गया है ।
(२) ऊपर के देवलोकों के देवों में गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान न्यून होने तथा लेश्या भी प्रशस्त तथा सम्यग्दृष्टि होने से कषाय भी मन्द होने तथा ब्रह्मचारी होने के कारण यत्किचित् भावसंयतता उनमें आ जाती है, इन देवों की अपेक्षा से उन्हें 'नोसंयत' कहना उचित है ।
देवों की भाषा एवं विशिष्ट भाषा : अर्धमागधी
२४. देवा णं भंते! कयराए भासाए भासंति ? कतरा वा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति ? गोयमा ! देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति, सा वि य णं अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति ।
[२४ प्र.] भगवन्! देव कौन-सी भाषा बोलते हैं ? अथवा (देवों द्वारा) बोली जाती हुई कौनसी भाषा विशिष्टरूप होती है ?
[२४ उ.] गौतम! देव अर्धमागधी भाषा बोलते हैं, और बोली जाती हुई वह अर्धमागधी भाषा ही विशिष्टरूप होती है।
विवेचन — देवों की भाषा एवं विशिष्टरूप भाषा : अर्धमागधी —— प्रस्तुत सूत्र में देवों की भाषा-सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है।
१.
अर्धमागधी का स्वरूप वृत्तिकार के अनुसार जो भाषा मगधदेश में बोली जाती है, उसे मागधी कहते हैं। जिस भाषा में मागधी और प्राकृत आदि भाषाओं के लक्षण (निशान) का मिश्रण हो गया हो, उसे अर्धमागधी भाषा कहते हैं । अर्धमागधी शब्द की व्युत्पत्ति- 'मागध्या अर्धम् अर्धमागधी '
(क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २२१ (ख) 'गति - शरीर-परिग्रहाऽभिमानतो हीना: ' 'परेऽप्रवीचाराः 'तत्त्वार्थसूत्र, अ.४, सू. १०
— तत्त्वार्थसूत्र अ. ४, सू. २२