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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हंता, पभू।
[३६-१] भगवन्! क्या चतुर्दशपूर्वधारी (श्रुतकेवली) एक घड़े में से हजार घड़े, एक वस्त्र में से हजार वस्त्र, एक कट (चटाई) में से हजार कट, एक रथ में से हजार रथ, एक छत्र में से हजार छत्र और एक दण्ड में से हजार दण्ड करके दिखलाने में समर्थ है ?
[३६-१ उ.] हाँ, गौतम! वे ऐसा करके दिखलाने में समर्थ हैं। [२] से केणढेणं पभू चोहसपुव्वी जाव उवदंसेत्तए ?
गोयमा! चउद्दसपुस्विस्स णं अणंताई दव्वाइं उक्करियाभेदेणं भिज्जमाणाई लद्धाई पत्ताई अभिसमन्नागताइं भवति।से तेणद्वेणं जाव उवदंसित्तए। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति०।
॥पंचमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥ [३३-२ प्र.] भगवन्! चतुर्दशपूर्वधारी एक घट में से एक हजार घट यावत् करके दिखलाने (प्रदर्शित करने) में कैसे समर्थ है ?
[३३-२ उ.] गौतम! चतुर्दशपूर्वधारी श्रुतकेवली ने उत्करिकाभेद द्वारा भेदे जाते हुए अनन्त द्रव्यों को लब्ध किया है, प्राप्त किया है तथा अभिसमन्वागत किया है। इस कारण से वह उपर्युक्त प्रकार से एक घट से हजार घट आदि करके दिखलाने में समर्थ है।
'हे भगवन्! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है', यों कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे।
विवेचन-चतुर्दश-पूर्वधारी का लब्धि-सामर्थ्य प्रस्तुत सूत्र में निरूपण किया गया है कि चतुर्दशपूर्वधारी श्रुतकेवली में श्रुत से उत्पन्न हुई एक प्रकार की लब्धि से उत्करिकाभेद से भिद्यमान अनन्तद्रव्यों के आश्रय द्वारा एक घट, पट, कट, रथ, छत्र और दण्ड से सहस्र घट-पट-कटादि बनाकर दिखला सकने का समर्थ्य है।
उत्करिकाभेद : स्वरूप और विश्लेषण–पुद्गलों को पांच प्रकार से खण्डित (भिन्नटुकड़े-टुकड़े) किया जाता है। इन्हें 'पुद्गलों के भेद' कहते हैं, वे पांच प्रकार के हैं—(१) खण्डभेद, (२) प्रतरभेद, (३) चूर्णिकाभेद, (४) अनुतटिकाभेद और (५) उत्करिकाभेद। जैसे ढेले को फैंकने पर उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, इसी तरह लोहे, ताम्बे आदि पुद्गलों के भेद को 'खण्डभेद' कहते हैं। एक तह के ऊपर दूसरी तह का होना 'प्रतरभेद' कहलाता है। जैसे—अभ्रक (भोडल) भोजपत्र आदि में प्रतरभेद पाया जाता है। तिल, गेहूँ, आदि के पिस जाने पर भेद होना, चूर्णिकाभेद' कहलाता
१.
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(क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. २०३ (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २२४ (क) प्रज्ञापनासूत्र पद ११, भाषापद (पृ. २६६ स.) में विस्तृत टिप्पण। (ख) प्रज्ञापना मलयगिरि टीका, पद ११ में संक्षिप्त विवेचन। (ग) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २२४