Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२९८]
[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जाता है, या अनादर करता हुआ जाता है?
[५७-२ उ.] गौतम! (जब ईशानेन्द्र, शक्रेन्द्र के पास जाता है, तब) वह आदर करता हुआ भी जा सकता है, और अनादर करता हुआ भी जा सकता है।
५८. पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसाणं देविंदं देवरायं सपक्खि सपडिदिसिं समभिलोएत्तए ?
जहा पादुब्भवणा तहा दो वि आलावगा नेयव्वा ।
[५८ प्र.] भगवन्! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के समक्ष (चारों दिशाओं में) तथा सप्रतिदिश (चारों कोनों में सब ओर) देखने में समर्थ है ?
[५८ उ.] गौतम! जिस तरह से प्रादुर्भूत होने (जाने) के सम्बन्ध में दो आलापक कहे हैं, उसी तरह से देखने के सम्बन्ध में भी दो आलापक कहने चाहिए।
५९. पभूणं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा सद्धिं आलावं वा संलावं वा करेत्तए?
हंता, पभू। जहा पादुब्भवणा।
[५९ प्र.] भगवन्! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के साथ आलाप या संलाप (भाषण-संभाषण या बातचीत) करने में समर्थ है ?
[५९ उ.] हाँ, गौतम! वह आलाप-संलाप करने में समर्थ है। जिस तरह पास जाने के सम्बन्ध में दो आलापक कहे हैं, (उसी तरह आलाप-संलाप के विषय में भी दो आलापक कहने चाहिए)।
६०.[१]अस्थिणं भंते! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं किच्चाई करणिज्जाइं समुप्पजति?
हंता, अत्थि।
[६०-१ प्र.] भगवन् ! उन देवेन्द्र देवराज शक्र और देवेन्द्र देवराज ईशान के बीच में परस्पर कोई कृत्य (प्रयोजन) और करणीय (विधेय—करने योग्य) समुत्पन्न होते हैं ?
[६०-१ उ.] हाँ, गौतम! समुत्पन्न होते हैं।
[२]से कहमिदाणिं पकरेंति? गोयमा! ताहे चेवणं से सक्के देविंदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउब्भवति, ईसाणे णं देविंदे देवराया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउब्भवइ-इति भो! सक्का! देवराया ! दाहिणवलोगाहिवती!'; 'इति भो! ईसाणा! देविंदा! देवराया! उत्तरड्ढलोगाहिवती!'। 'इति भो इति भो' त्ति ते अन्नमन्नस्स किच्चाई करणिज्जाई पच्चणुभवमाणा विहरंति।।
[६०-२ प्र.] भगवन्! जब इन दोनों के कोई कृत्य (प्रयोजन) या करणीय होते हैं, तब वे कैसे व्यवहार (कार्य) करते हैं ?
- [६०-२ उ.] गौतम! जब देवेन्द्र देवराज शक्र को कार्य होता है, तब वह (स्वयं) देवेन्द्र देवराज ईशान के समीप प्रकट होता है, और जब देवेन्द्र देवराज ईशान को कार्य होता है, तब वह (स्वयं) देवेन्द्र देवराज शक्र के निकट जाता है। उनके परस्पर सम्बोधित करने का तरीका यह है- ऐसा है, हे दक्षिणार्द्धलोकाधिपति देवेन्द्र देवराज शक्र!' (शक्रेन्द्र पुकारता है—) 'ऐसा है, हे उत्तरार्द्धलोकाधिपति देवेन्द्र देवराज ईशान!' (यहाँ), दोनों ओर से 'इति भो-इति भो!' (इस प्रकार के शब्दों से परस्पर)