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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [२] तए णं देवा समणं भगवं महावीरं वंदंति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता मणसा चेव इमं एतारूवं वागरणं पुच्छंति कति णं भंते! देवाणुप्पियाणं अंतेवासिसयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति ? तए णं समणे भगवं महावीरे तेहिं देवेहिं मणसा पुढे, तेसिं देवाणं मणसा चेव इमं एतारूवं वागरणं वागरेति एवं खलु देवाणुप्पिया! मम सत्त अंतेवासिसताई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिति।
[१८-२ प्र.] तत्पश्चात् उन देवों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दननमस्कार करके उन्होंने मन से ही (मन ही मन) (श्रमण भगवान् महावीर से) इस प्रकार का ऐसा प्रश्न पूछा-'भगवन् ! आपके कितने सौ शिष्य सिद्ध होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे?'
[१८-२ उ.] तत्पश्चात् उन देवों द्वारा मन से पूछे जाने पर श्रमण भगवान् महावीर ने उन देवों को भी मन से इस प्रकार का उत्तर दिया—'हे देवानुप्रियो ! मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध होंगे, यावत् सब दुखों का अन्त करेंगे।'
[३] तए णं ते देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुढेणं मणसा चेव इमं एतारूवं वागरणं वागरिया समाणा हट्ठतुट्ठा जाव हयहियया समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति, २ त्ता मणसा चेव सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा जाव पज्जुवासंति।
[१८-३] इस प्रकार उन देवों द्वारा मन से पूछे गए प्रश्न का उत्तर श्रमण भगवान् महावीर ने भी मन से ही इस प्रकार दिया, जिससे वे देव हर्षित, सन्तुष्ट (यावत्) हृदय वाले एवं प्रफुल्लित हुए। फिर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके मन से उनकी शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए अभिमुख होकर यावत् पर्युपासना करने लगे।
१९.[१] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेढे अंतेवासी इंदभूति णामं अणगारे जाव अदूरसामंते उड्ढजाणू जाव विहरति।
__ [१९-१] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (पट्टशिष्य) इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् न अतिदूर और न ही अतिनिकट उत्कुटुक (उकडू) आसन से बैठे हुए यावत् पर्युपासना करते हुए उनकी सेवा में रहते थे।
[२] तए णं तस्स भगवतो गोतमस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था—एवं खलु दो देवा महिड्डीया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउब्भूया, तं नो खलु अहं ते देवे जाणामि कयरातो कप्पातो वा सग्गातो वा विमाणातो वा कस्स वा अत्थस्स अट्ठाए इहं हव्वमागता?' तं गच्छामि णं भगवं महावीरं वदामि णमंसामि जाव' पज्जुवासामि, इमाई च णं एयारूवाइं वागरणाइं पुच्छिस्सीम त्ति कटु एवं संपेहेति, २ उट्ठाए उठेति, २ जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासति।
'जाव' शब्द से गौतमस्वामी द्वारा समाचरित आराधना-पर्युपासना सम्बन्धी पूर्वोक्त समग्र वर्णन कहना चाहिए।