Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इसके पश्चात् नाविक जिस प्रकार अपनी नौका पानी में छोड़ता है, उसी प्रकार उसने भी अपने पात्र को नौकरूप मानकर, पानी में छोड़ा। फिर 'यह मेरी नाव है, यह मेरी नाव है, ' यों पात्रीरूपी नौका को पानी में प्रवाहित करते (बहाते - तिराते हुए) क्रीड़ा करने (खेलने) लगे।
[४] तं च थेरा अद्दक्खु । जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, २ एवं वदासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी अतिमुत्ते णामं कुमारसमणे, से णं भंते! अतिमुत्ते कुमारसमणे कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति!
'अज्जो !' ति समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं वदासी एवं खलु अज्जो ! ममं अंतेवासी अतिमुत्ते णामं कुमारसमणे पगतिभद्दए जाव विणीए से णं अतिमुत्ते कुमारसमणे इमेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति । तं मा णं अज्जो ! तुब्भे अतिमुत्तं कुमारसमणं हीह निंदह खिंसह गरहह अवमन्नह । तुब्भे णं देवाणुप्पिया! अतिमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हह, अगिलाए उवगिण्हह, अगिलाए भत्तेणं पाणेणं विणयेणं वेयावडियं करेह । अतिमुत्ते कुमारसमणे अंतकरे चेव, अंतिमसरीरिए चेव ।
[१७-४] इस प्रकार करते हुए उस अतिमुक्तक कुमारश्रमण को स्थविरों ने देखा । स्थविर ( अतिमुक्तक कुमार श्रमण को कुछ भी कहे बिना) जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आए और निकट आकर उन्होंने उनसे पूछा (कहा) —
[प्र.] भगवन्! आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी (शिष्य) जो अतिमुक्तक कुमारश्रमण है, वह अतिमुक्तक कुमार श्रमण कितने भव (जन्म) ग्रहण करके सिद्ध होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा ?
[उ.] 'हे आर्यो !' इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उन स्थविरों को सम्बोधित करके कहने लगे—' आर्यो ! मेरा अन्तेवासी (शिष्य) अतिमुक्तक नामक कुमारश्रमण, जो प्रकृति से भद्र यावत् प्रकृति से विनीत है; वह अतिमुक्तक कुमार श्रमण इसी भव (जन्मग्रहण) से सिद्ध होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा । अतः हे आर्यो ! तुम अतिमुक्तक कुमारश्रमण की हीलना मत करो, न ही उसे झिड़को (जनता के समक्ष चिढ़ाओ, डांटो या खिंसना करो), न ही गर्हा (बदनामी) और अवमानना (अपमान) करो। किन्तु हे देवानुप्रियो ! तुम अग्लानभाव से ( ग्लानि घृणा या खिन्नता लाए बिना ) अतिमुक्तक कुमार श्रमण को स्वीकार करो, अग्लानभाव से (संयम में) उसकी सहायता (उपग्रह = उपकार) करो, और अग्लानभाव से आहार- पानी से विनय सहित उसकी वैयावृत्य (सेवा शुश्रूषा) करो; क्योंकि अतिमुक्तक कुमार श्रमण ( इसी भव में सब कर्मों का या संसार का ) अन्त करने वाला है, और चरम ( अन्तिम ) शरीरी है ।'
[५] त णं थेरा भगवंतो समणेणं भगवता महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति, अतिमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हंति जाव वेयावडियं करेंति । [१७-५] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर (तत्क्षण) उन