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नवमो उद्देसो : नेरइयं
नवम उद्देशक : नैरयिक नैरयिकों की उत्पत्तिप्ररूपणा
१. नेरइए णं भंते! नेरतिएसु उववजइ ? अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ ? पण्णवणाए लेस्सापदे ततिओ उद्देसओ भाणियव्वो जाव नाणाई।
॥चउत्थे सए नवमो उद्देसो समत्तो॥ [१ प्र.] भगवन् ! जो नैरयिक है, क्या वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है, या जो अनैरयिक है, वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
[१ उ.] (हे गौतम!) प्रज्ञापनासूत्र में कथिन लेश्यापद का तृतीय उद्देशक यहाँ कहना चाहिए और वह यावत् ज्ञानों के वर्णन तक कहना चाहिए।
विवेचननैरयिकों में नैरयिक उत्पन्न होता है या अनैरयिक ?: शंका-समाधान—प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्न करने पर शास्त्रकार ने उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र के १७वें लेश्यापद के तृतीय उद्देशक का अतिदेश किया है। वह इस प्रकार है
[प्र.] भगवन्! क्या नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होता है या अनैरयिक नैरयिकों में उत्पन्न होता है ?
[उ.] गौतम! नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होता है, अनैरयिक नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता।
इस कथन का आशय यहाँ से मर कर नरक में उत्पन्न होने वाले जीव की तिर्यञ्च या मनुष्य-सम्बन्धी आयु तो यहीं समाप्त हो जाती है, सिर्फ नरकायु ही बंधी हुई होती है। यहाँ मर कर नरक में पहुँचते हुए मार्ग में जो एक-दो आदि समय लगते हैं, वे उसकी नरकायु में से ही कम होते हैं। इस प्रकार नरकगामी जीव मार्ग में भी नरकायु को भोगता है, इसलिए वह नैरयिक ही है। ऋजुसूत्रनय की वर्तमानपर्यायपरक दृष्टि से भी यह कथन सर्वथा उचित है कि नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होत है, अनैरयिक नहीं।
इस तरह शेष दण्डकों के जीवों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए।
कहाँ तक ?—प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद का तीसरा उद्देशक ज्ञान सम्बन्धी वर्णन तक कहना चाहिए। वह वहाँ इस प्रकार से प्रतिपादित है—(प्र.) भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला जीव कितने १. (क) प्रज्ञापना सूत्र पद १७ उ. ३ (पृ. २८७ म.वि.) में देखें 'गोयमा! नेरइए नेरइएसु उववज्जइ, नो अणेरइए
णेरइएसु उववज्जइ' इत्यादि। (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २०५