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चतुर्थ शतक : उद्देशक - १०]
[ ३९९ होता है क्योंकि कहा है- 'जल्लेसाइं दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेसे उववज्जइ' अर्थात्—जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव मृत्यु पाता है, उसी लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है।' जो कारण होता है, वही संयोगवश कार्यरूप बन जाता है। जैसे कारणरूप मिट्टी साधन- संयोग से घटादि कार्यरूप बन जाती है, वैसे ही कृष्णलेश्या भी कालान्तर में साधन- संयोगों को पाकर नीलेश्या के रूप में परिणत (परिवर्तित ) हो जाती है। ऐसी स्थिति में कृष्ण और नीललेश्या में सिर्फ औपचारिक भेद रह जाता है, मौलिक भेद नहीं ।
प्रज्ञापना में एक लेश्या का लेश्यान्तर को प्राप्त कर तद्रूप यावत् तत्स्पर्श रूप में परिणत होने का कारण पूछने पर बताया गया है— जिस प्रकार छाछ का संयोग मिलने से दूध अपने मधुरादि गुणों को छोड़कर छाछ के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में परिवर्तित हो जाता है, अथवा जैसे स्वच्छ वस्त्र रंग के संयोग से उस रंग के रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रूप में परिणत हो जाता है, वैसे ही कृष्णलेश्या भी नीललेश्या का संयोग पाकर तद्रूप या तत्स्पर्शरूप में परिणत हो जाती है । जैसे कृष्णलेश्या का नीललेश्या में परिणत होने का कहा, वैसे ही नीललेश्या कापोतलेश्या को, कापोततेजोलेश्या को, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को तथा पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को पाकर उसके रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शरूप में परिणत हो जाती है, इत्यादि सब कहना चाहिए ।
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परिणामादि द्वार का तात्पर्य लेश्यापद के चतुर्थ उद्देशक में परिणामादि १५ द्वारों का यहाँ अतिदेश किया गया है, उसका तात्पर्य यह है— परिणाम द्वार के विषय में ऊपर कह दिया गया है। वर्णद्वार——कृष्णलेश्या का वर्ण मेघादि के समान काला, नीललेश्या का भ्रमर आदिवत् नीला, कापोतलेश्या का वर्ण खैरसार ( कत्थे) के समान कापोत, तेजोलेश्या का शशक के रक्त के समान लाल, पद्मलेश्या का चम्पक पुष्प आदि समान पीला और शुक्ललेश्या का शंखादि के समान श्वेत रसद्वार—कृष्णलेश्या का रस नीम के वृक्ष के समान तिक्त (कटु), नीललेश्या का सोंठ आदि के समान तीखा, कापोतलेश्या का कच्चे बेर के समान कसैला, तेजोलेश्या का पके हुए आम के समान खटमीठा, पद्मलेश्या का चन्द्रप्रभा आदि मदिरा के समान तीखा, कसैला और मधुर ( तीनों संयुक्त ) है, तथा शुक्ललेश्या का रस गुड़ के समान मधुर है । गन्धद्वार — कृष्ण, नील और कापोत, ये तीन लेश्याएँ दुरभिगन्ध वाली हैं और तेजो, पद्म एवं शुक्ल ये तीन लेश्याएँ सुरभिगन्ध वाली हैं। शुद्ध-प्रशस्त संक्लिष्ट - उष्णादिद्वार —— कृष्ण, नील और कापोत, ये तीन लेश्याएँ अशुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, शीत और रूक्ष हैं, तथा दुर्गति की कारण हैं। तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्याएँ शुद्ध, प्रशस्त, असंक्लिष्ट, उष्ण और स्निग्ध हैं, तथा सुगति की कारण हैं । परिणाम- प्रदेश-वर्गणा - अवगाहना- स्थानादि
१. (क) 'से णूणं भंते! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए, तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ?' 'हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ।' से केणट्ठेणं भंते एवं वुच्चइ - कण्हलेस्सा...जाव भुज्जो भुज्जो परिणमत् ि'गोयमा ! से जहानामए खीरे पिप्प, सुद्धे वा वत्थे रागं पप्प तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ, से एएणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - कण्हलेस्सा इत्यादि । '
(ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २०५
- प्रज्ञापना०लेश्यापद १७, उ-४