Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 470
________________ पंचम शतक : उद्देशक - ३] [ ४२९ से एक साथ अनेक गतियों के वेदन का प्रसंग आएगा, जो प्रत्यक्षविरुद्ध है । अतः जालग्रन्थि की तरह एक जीव के साथ दो या अनेक भवों के आयुष्य का वेदन मानना युक्तिसंगत नहीं । यदि यह माना जाएगा कि उन आयुष्यों का जीव के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, तो आयुष्य के कारण जो जीवों को देवादि गति में उत्पन्न होना पड़ता है, वह सम्भव न हो सकेगा । अतः जीव और आयुष्य का परस्पर सम्बन्ध तो मानना चाहिए, अन्यथा, जीव और आयुष्य का किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने से जीव पर आयुष्य निमित्तक असर जरा भी नहीं होगा । अतः आयुष्य और जीव का परस्पर सम्बन्ध श्रृंखलारूप समझना चाहिए। शृंखला की कड़ियाँ जैसे परस्पर संलग्न होती हैं, वैसे ही एक भव के आयुष्य के साथ दूसरे भव का आयुष्य प्रतिबद्ध है और उसके साथ तीसरे, चौथे, पांचवें आदि भवों का आयुष्य क्रमशः शृंखलावत् प्रतिबद्ध है। तात्पर्य यह है कि इस तरह एक के बाद दूसरे आयुष्य का वेदन होता रहता है, किन्तु एक ही भव में अनेक आयुष्य नहीं भोगे जाते। वर्तमान भव के आयुष्य का वेदन करते समय भावी जन्म के आयुष्य का बंध तो हो जाता है, पर उसका उदय नहीं होता, अतएव एक जीव एक भव में एक ही आयुष्य का वेदन करता है । चौबीस दण्डकों तथा चतुर्विध योनियों की अपेक्षा से आयुष्यबन्ध सम्बन्धी विचार २. जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते! किं साउए संकमति, निराउ संकमति ? गोयमा! साउए संकमति, नो निराउए संकमति । [२ प्र.] भगवन्! जो जीव नैरयिकों में उत्पन्न होने के योग्य है, क्या वह जीव यहीं से आयुष्ययुक्त होकर नरक में जाता है, अथवा आयुष्य रहित होकर जाता है ? [२ उ.] गौतम! (जो जीव नैरयिकों में उत्पन्न होने वाला है) वह यहीं से आयुष्ययुक्त होकर नरक में जाता है, परन्तु आयुष्यरहित होकर नरक में नहीं जाता। ३. से णं भंते! आउए कहिं कडे ? कहिं समाइणणे ? गोयमा ! पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भव समाइणे । [३ प्र.] हे भगवन्! उस जीव ने वह आयुष्य कहाँ बाँधा ? और उस आयुष्य - सम्बन्धी आचरण कहाँ किया ? [३ उ.] गौतम! उस (नारक) जीव ने वह आयुष्य पूर्वभव में बाँधा था और उस आयुष्यसम्बन्धी आचरण भी पूर्वभव में किया था । ४. एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ । [४] जिस प्रकार यह बात नैरयिक के विषय में कही गई है, इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक सभी दण्डकों के विषय में कहनी चाहिए । १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २१४ (ख) भगवती. हिन्दी विवेचन भाग २, पृ. ७९० (ग) भगवती सूत्र (टीकानुवाद - टिप्पण) खण्ड १ में प्रथम शतक, उद्दे. ९, सू. २९५, पृ. २०४ देखिये

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