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दसमो उद्देसो : लेस्सा
दशम उद्देशक : लेश्या
लेश्याओं का परिणमनादि पन्द्रह द्वारों से निरूपण
१. से नूणं भंते! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए ? एवं चउत्थो उद्देसओ पण्णवणाए चेव लेस्सापदे नेयव्वो जाव
परिणाम-वण्ण-रस-गंध-सुद्ध - अपसत्थ-संकिलिट्ठण्हा—गति - परिणाम - पदेसोगाह - वग्गणा - ठाणमप्पबहुं ॥१॥ सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति० ।
॥ चउत्थे सए : दसमो उद्देसओ समत्तो ॥
॥ चउत्थं सयं समत्तं ॥
[१ प्र.] भगवन्! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या का संयोग पाकर तद्रूप और तद्वर्ण में परिणत हो जाती है ?
[१ उ.] ( हे गौतम!) प्रज्ञापनासूत्र में उक्त लेश्यापद का चतुर्थ उद्देशक यहाँ कहना चाहिए; और वह यावत् परिणाम इत्यादि द्वार - गाथा तक कहना चाहिए। गाथा का अर्थ इस प्रकार है-
परिणाम, वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाहना, वर्गणा, स्थान और अल्पबहुत्व; (ये सब बातें लेश्याओं के सम्बन्ध में कहनी चाहिए ।)
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', (यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं ।)
विवेचन लेश्याओं का परिणमनादि पन्द्रह द्वारों से निरूपण - प्रस्तुत सूत्र में एक लेश्या को दूसरी लेश्या का संयोग प्राप्त होने पर वह उक्त लेश्या के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रूप में परिणत होती है या नहीं ? इस प्रश्न को उठाकर उत्तर के रूप में प्रज्ञापना के लेश्यापद के चतुर्थ उद्देशक (परिणामादि द्वारों तक) का अतिदेश किया गया है। वस्तुतः लेश्या से सम्बन्धित परिणामादि १५ द्वारों की प्ररूपणा का अतिदेश किया गया है।
अतिदेश का सारांश— प्रज्ञापना में उक्त मूलपाठ का भावार्थ इस प्रकार है— (प्र.) 'भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या (के संयोग ) को प्राप्त करके तद्रूप यावत् तत्स्पर्श रूप में बारम्बार परिणत होती है ? '
इसका तात्पर्य यह है कि कृष्णलेश्यापरिणामी जीव, यदि नीललेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करके मृत्यु पाता है, तब वह जिस गति-योनि में उत्पन्न होता है; वहाँ नीललेश्या - परिणामी होकर उत्पन्न