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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
मूलपाठ में विकुर्वणा के सम्बन्ध में प्रश्न करके उत्तर में जो 'फल' बताया गया है, वह अभियोग क्रिया का भी समझना चाहिए, क्योंकि अभियोग भी एक प्रकार की विक्रिया ही है। दोनों के कर्त्ता मायी (प्रमादी एवं कषायवान्) साधु होते हैं । १
आभियोगिक अनगार का लक्षण —— उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार 'जो साधक केवल वैषयिक सुख (साता), स्वादिष्ट भोजन (रस) एवं ऋद्धि को प्राप्त करने हेतु मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र साधना या विद्या आदि की सिद्धि से उपजीविका करता है, जो औषधिसंयोग (योग) करता है, तथा भूति ( भस्म) डोरा, धागा, धूल आदि मंत्रित करके प्रयोग करता है, वह आभियोगिकी भावना करता है।' ऐसी आभियोगिकी भावना वाला साधु आभियोगिक (देवलोक में महर्द्धिक देवों की आज्ञा एवं अधीनता में रहने वाले दास या भृत्यवर्ग के समान) देवों में उत्पन्न होता है। ये आभियोगिक देव अच्युत देवलोक तक होते हैं। इसलिए यहाँ 'अण्णयरेसु' (आभियोगिक देवलोकों में से किसी एक में) शब्द प्रयोग किया गया है। २ पंचम उद्देशक की संग्रहणीगाथा
१६. गाहा— इत्थी असी पडागा जण्णोवइते य होइ बोद्धव्वे । पल्हत्थिय पलियंके अभियोगविकुव्वणा मायी ॥ १ ॥
॥ तइए सए : पंचमो उद्देसो समत्तो ॥
[ १६ ] संग्रहणीगाथा का अर्थ स्त्री, असि (तलवार), पताका, यज्ञोपवीत (जनेऊ), पल्हथी, पर्यंकासन, इन सब रूपों के अभियोग और विकुर्वणा-सम्बन्धी वर्णन इस (पंचम) उद्देशक में है तथा ऐसा कार्य (अभियोग तथा विकुर्वणा का प्रयोग) मायी करता है, यह भी बताया गया है।
॥ तृतीय शतक : पंचम उद्देशक समाप्त ॥
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १९१
२. (क) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद- टिप्पणयुक्त) खण्ड २, पृ. ९९ (ख) मंताजोगं काउं, भूइकम्मं च जे पउंजंति । साय-रस- इड्ढिहेउं अभिओगं भावणं कुणइ ॥
-उत्तराध्ययन. अ. २६, गा. २६२, क. आ., पृ. ११०३ - प्रज्ञापनासूत्र पद २०, पृ. ४०० - ४०६
(ग) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १९१ (क) गच्छाचारपइन्ना और बृहत्कल्प वृत्ति में भी इसी प्रकार की गाथा मिलती है।
(ङ) "एआणि गारवट्ठा कुणमाणो आभियोगिअं बंधई ।
बीअं गारवरहिओ कुव्वं आराहगत्तं च ॥"
इस मन्त्र, आयोग और कौतुक आदि का उपयोग, जो गौरव (साता - रस - ऋद्धि) के लिए करता है, वह अपवादपद भी है, कि जो निःस्पृह, अतिशय ज्ञानी कौतुकादि का प्रयोग करता है, वह आराधकभाव को
—अभिधानराजेन्द्रकोष, भा. १
आभियोगिक देवायुरूप कर्म बांध लेता है। दूसरा गौरवहेतु से रहित सिर्फ प्रवचन - प्रभावना के लिए इन प्राप्त होता है, उच्चगोत्र कर्म बांधता है।