Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भूनते हैं। (१३) वैतरणी-जो रक्त, मांस मवाद, ताम्बा, शीशा आदि गर्म पदार्थों से उबलती हुई नदी में नारकों को फैंक कर तैरने के लिए बाध्य करते हैं, (१४) खरस्वर-जो वज्रकण्टकों के भरे शाल्मलि वृक्ष पर नारकों को चढ़ाकर, करुणक्रन्दन करते हुए नारकों को कठोरस्वरपूर्वक खींचते हैं, (१५) महाघोष डर से भागते हुए नारकों को पकड़ कर बाड़े में बन्द कर देते हैं, जोर से चिल्लाते हैं। वरुणलोकपाल के विमान-स्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन
६.[१] कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो सयंजले नामं महाविमाणे पण्णत्ते ?
गोयमा! तस्स णं सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स पच्चत्थिमेणं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाइं जहा सोमस्स तहा विमाण-रायहाणीओ भाणियव्वा जाव पासायवडिंसया नवरं नामनाणत्तं।
[६-१ प्र.] भगवन्! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-वरुण महाराज का स्वयंज्वल नामक महाविमान कहाँ हैं ?
[६-१ उ.] गौतम! उस सौधर्मावतंसक महाविमान से पश्चिम में सौधर्मकल्प से असंख्येय हजार योजन पार करने के बाद, वहीं वरुणमहाराज का स्वयंज्वल नाम का महाविमान आता है। इससे सम्बन्धित सारा वर्णन सोममहाराज के महाविमान की तरह जान लेना चाहिए, राजधानी यावत् प्रासादावतंसकों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। केवल नामों में अन्तर है।
[२] सक्कस्स णं वरुणस्स महारण्णो इमे देवा आणा० जाव चिह्रति, तं० - वरुणकाइया ति वा, वरुणदेवयकाइया इ वा, नागकुमारा नागकुमारीओ, उदहिकुमारा उदहिकुमारीओ, थणियकुमारा थणियकुमारीओ, जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया जाव चिट्ठति।
[६-२] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वरुण महाराज के ये देव आज्ञा में यावत् रहते हैं वरुणकायिक, वरुणदेवकायिक, नागकुमार-नागकुमारियाँ; उदिधकुमार-उदधिकुमारियाँ स्तनितकुमारस्तनितकुमारियाँ; ये और दूसरे सब इस प्रकार के देव, उनकी भक्तिवाले यावत् रहते हैं।
[३] जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाइं समुप्पजंति, तं जहा–अतिवासा ति वा, मंदवासा ति वा, सुवुट्ठी ति वा, दुव्वुट्ठी ति वा, उदब्भेया ति वा, उदप्पीला इ वा, उदवाहा ति वा, पवाहा ति व, गामवाहा ति वा, जाव सन्निवेसवाहा ति वा, पाणक्खया जाव तेसिं वा वरुणकाइयाणं देवाणं।
[६-३] जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दरपर्वत से दक्षिण दिशा में जो कार्य समुत्पन्न होते हैं, वे इस प्रकार हैं—अतिवर्षा, मन्दवर्षा, सुवृष्टि, दुर्बुष्टि, उदकोइँद (पर्वत आदि से निकलने वाला झरना), उदकोत्पील (सरोवर आदि में जमा हुई जलराशि), उदवाह (पानी का अल्प प्रवाह), प्रवाह, ग्रामवाह (ग्राम का बह जाना) यावत् सन्निवेशवाह, प्राणक्षय यावत् इसी प्रकार के दूसरे सभी कार्य वरुणमहाराज १. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक १९८ (ख) भगवती (विवेचनयुक्त) (पं. घेवरचन्दजी) भा. २, पृ.७२०