Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय शतक : उद्देशक-८]
[३८५ दूसरे ग्रन्थ में यह बताया गया है कि दक्षिण दिशावर्ती लोकपालों के प्रत्येक सूत्र में जो तीसरा और चौथा कहा गया है, वही उत्तरदिशावर्ती लोकपालों में चौथा और तीसरा कहना चाहिए।
सोमादि लोकपाल : वैदिक ग्रन्थों में यहाँ जैसे सोम, यम, वरुण और वैश्रमण, एक प्रकार के लोकपाल देव कहे गए हैं, वैसे ही यास्क-रचित वैदिकधर्म के प्राचीन ग्रन्थ निरुक्त में भी इनकी व्याख्या प्राकृतिक देवों के रूप में मिलती है। सोम की व्याख्या की गई है-सोम एक प्रकार की औषधि है। यथा-'हे सोम! अभिषव (रस) युक्त बना हुआ तू स्वादिष्ट और मदिष्टधारा से इन्द्र के पीने के लिए टपक पड़।' इस सोम का उपभोग कोई अदेव नहीं कर सकता।' 'सर्प और ज्वरादिरूप होकर जो प्राणिमात्र का नाश करता है, यह 'यम' है। अग्नि को भी यम कहा गया है।' जो आवृत करता-ढकता है, (मेघसमूह द्वारा आकाश को), वह 'वरुण' कहलाता है। वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों पर आधिपत्य की प्ररूपणा ४. पिसायकुमाराणं पुच्छा ।
गोयमा! दो देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा
काले य महाकाले सुरूवं पडिरूव पुन्नभद्दे य । अमरवइ माणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे ॥१॥ किन्नर किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । अतिकाय महाकाए गीतरती चेव गीयजसे ॥२॥
एते वाणमंतराणं देवाणं। [४ प्र.] भगवन् ! पिशाचकुमारों (वाणव्यन्तर देवों) पर कितने देव आधिपत्य करते हुए विचरण करते हैं ?
[४ उ.] गौतम! उन पर दो-दो देव (इन्द्र) आधिपत्य करते हुए यावत् विचरते हैं। वे इस प्रकार हैं—(१) काल और महाकाल, (२) सुरूप और प्रतिरूप, (३) पूर्णभद्र और मणिभद्र, (४) भीम और महाभीम, (५) किन्नर और किम्पुरुष, (६) सत्पुरुष और महापुरुष (७) अतिकाय और महाकाय, तथा (८) गीतरति और गीतयश। ये सब वाणव्यन्तर देवों के अधिपति-इन्द्र हैं।
५ जोतिसियाणं देवाणं दो देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा—चंदे य सूरे य। [५] ज्योतिष्क देवों पर आधिपत्य करते हुए दो देव यावत् विचरण करते हैं, यथा—चन्द्र और
सूर्य।
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २०१ २. (क) 'औषधिः सोमः सुनोतेः यद् एनमभिषुण्वन्ति।' 'स्वादिष्टया मदिष्ठया पवस्व सोम। धारया इन्द्राय
पातवे सुतः''न तस्य अश्नाति कश्चिददेवः।' यास्क निरुक्त, पृ.७६९-७७१ । (ख) 'यमो यच्छतीति सतः''यच्छति-उपरमयति जीवितात्' (तस्क०, इ. सर्पज्वरादिरूपो भूत्वा) 'सवं
भूतग्रामम् यम।''अग्निरपि यम उच्यते' यास्क निरुक्त, पृ.७३२-७३३ (ग) 'वरुणः-वृणोति इति, स हि वियद् वृणोति मेघजालेन।' यास्क निरुक्त, पृ.७१२-७१३