Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय शतक : उद्देशक-४]
[३४९ ८ से ११ तक) में आकाश में अनेक रूपों में दृश्यमान मेघों के रूपपरिणमन तथा गमन के सम्बन्ध में चर्चा की गई है।
निष्कर्ष–मेघ (बलाहक) अजीव होने से उनमें विकुर्वणाशक्ति नहीं है, किन्तु स्वभावतः (वित्रसा) रूप-परिणमन मेघों में भी होता है, इसीलिए यहाँ 'विउव्वित्तए' शब्द के बदले 'परिणामेत्तए' शब्द दिया गया है। मेघ स्त्री आदि अनेक रूपों में परिणत होकर, अचेतन होने से आत्मऋद्धि, आत्मकर्म और आत्मप्रयोग से गति न करके. वाय. देव आदि से प्रेरित होकर परऋद्धि परकर्म और परप्रयोग से अनेक योजन तक गति कर सकता है। विशेष बात यह है कि बलाहक जब यान के रूप में परिणत होकर गति करता है, तब उसके एक ओर भी चक्र रह सकता है, दोनों ओर भी। चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों की लेश्या-सम्बन्धी प्ररूपणा
१२. जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते! किंलेसेसु उववज्जति ?
गोयमा! जल्लेसाई दव्वाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं०-कण्हलेसेसु वा नीललेसेसु वा काउलेसेसु वा ।
[१२ प्र.] भगवन् ! जो जीव, नैरयिकों में उत्पन्न होने वाला है, वह कौन-सी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है ?
[१२ उ.] गौतम! वह जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है, उसी लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है । यथा—कृष्णलेश्यावालों में, नीललेश्या वालों में, अथवा कापोतलेश्यावालों
१३. एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भाणियव्वा जाव जीवे णं भंते! जे भविए जोतिसिएसु उववजित्तए० पुच्छा ।
गोयमा! जल्लेसाई दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं०-तेउलेस्सेसु।
[१३] इस प्रकार जो जिसकी लेश्या हो, उसकी वह लेश्या कहनी चाहिए। यावत् व्यन्तरदेवों तक कहना चाहिए।
[प्र.] भगवन् ! जो जीव ज्योतिष्कों में उत्पन्न होने योग्य है, वह किन लेश्याओं में उत्पन्न होता
[उ.] गौतम! जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, वैसी लेश्यावालों में वह उत्पन्न होता है। जैसे कि तेजोलेश्यावालों में।
१४. जीवे णं भंते! जे भविए वेमाणिएसु उववजित्तए से णं भंते! किंलेस्सेसु उववज्जइ ? ___गोयमा ! जल्लेसाई दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं०-तेउलेस्सेसु वा पम्हलेसेसु वा सुक्कलेसेसु वा।
१. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक १८६-१८७
(ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. १६०-१६१