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तृतीय शतक : उद्देशक-४]
[३५१ के परिणत होने के प्रथम समय में किसी भी जीव का परभव में उपपात (जन्म) नहीं होता, इसी प्रकार सर्वलेश्याओं के परिणत होने के अन्तिम समय में भी किसी भी जीव का परभव में उपपात (जन्म) नहीं होता, अपितु लेश्याओं के परिणाम को अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर जीव परलोक में जाते हैं।' उपर्युक्त तथ्य मनुष्यों और तिर्यञ्चों के लिए समझना चाहिए क्योंकि उनकी लेश्याएँ बदलती रहती हैं। देवों और नारकों की लेश्या जीवनपर्यन्त बदलती नहीं, वह एक सी रहती है। अतः कोई भी देव या नारक अपनी लेश्या का अन्त आने में अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, तभी वह काल करता है, उससे पहले नहीं।
लेश्या और उसके द्रव्य–जिसके द्वारा आत्मा कर्म के साथ श्लिष्ट होती है, उसे लेश्या कहते हैं। प्रज्ञापना सूत्र (१७ वें लेश्यापद) तथा उत्तराध्ययन सूत्र (३४वें लेश्याध्ययन) में लेश्याओं के प्रकार, अधिकारी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, परिणाम, स्थान, लक्षण, स्थिति, गति आदि तथ्यों का विस्तृत वर्णन मिलता है। प्रज्ञापना (मलयगिरि) वृत्ति के अनुसार लेश्या परमाणुपुद्गलसमूह (वर्गणा) रूप हैं। ये लेश्या के परमाणु जीव में उद्भूत हुए कषाय को उत्तेजित करते हैं। कषायवृत्ति का समूल नाश होते ही ये लेश्या के अणु अकिंचित्कर हो जाते हैं। कषाय के प्रादुर्भाव के अनुसार लेश्या प्रशस्त हो जाती है। इसीलिए लेश्या को द्रव्य कहा है। भावितात्मा अनगार द्वारा अशक्य एवं शक्य विकुर्वणाशक्ति
१५. अणगारे णं भंते! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा पलंघेत्तए वा ?
गोयमा! णो इणढे समठे।
[१५ प्र.] भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना वैभारगिरि को उल्लंघ (लांघ) सकता है, अथवा प्रलंघ (विशेषरूप से या बार-बार लांघ) सकता है ?
[१५ उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है।
१६. अणगारे णं भंते! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा पलंघेत्तए वा ?
हंता, पभू।
[१६ प्र.] भगवन्! भावितात्मा अनगार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके क्या वैभारगिरि का उल्लंघन या प्रलंघन करने में समर्थ है?
[१६ उ.] हाँ गौतम! वह वैसा करने में समर्थ है।
१७. अणगारे णं भंते! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता जावइयाइं रायगिहे नगरे रूवाइं एवइयाई विकुव्वित्ता वेभारं पव्वयं अंतो अणुप्पविसित्ता पभू समं वा विसमं १. (क) भगवती (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड २, (पं. बेचरदासजी), पृ. ९२
(ख) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक १८८ २. (क) भगवती (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खं. २, (पं. बेचर.), पृ. ९०, (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक १८८