Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
कारण शुष्क एवं रूक्ष हो गया । यहाँ बीच का सारा वर्णन तामली तापस की तरह (पूर्ववत् ) जानना चाहिए; यावत् वह (पूरण बालतपस्वी) भी 'बेभेल' सन्निवेश के बीचोंबीच होकर निकला। निकल कर उसने पादुका (खड़ाऊँ) और कुण्डी आदि उपकरणों को तथा चार खानों वाले काष्ठपात्र को एकान्त प्रदेश में छोड़ दिया। फिर बेभेल सन्निवेश के अग्निकोण (दक्षिणपूर्वदिशाविभाग) में अर्द्धनिर्वर्तनिक मण्डल रेखा खींच कर बनाया अथवा प्रतिलेखित प्रमार्जित किया। यों मण्डल बना कर उसने संलेखना की जूषणा (आराधना) से अपनी आत्मा को सेवित (युक्त) किया। फिर यावज्जीवन आहारपानी का प्रत्याख्यान करके उस पूरण बालतपस्वी ने पादपोपगमन अनशन (संथारा) स्वीकार किया ।
२२. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! छउमत्थकालियाए एक्कारसवासपरियाए छंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्माणे जेणेव सुंसुमारपुरे नगरे जेणेव असोगवणसंडे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे जेणेवे पुढविसिलावट्टए तेणेव उवागच्छामि, २ असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढविसिलावट्टयंसि अट्ठमभत्तं पगिण्हामि, दो वि पाए साहट्टु वग्घारियपाणीएगपोग्गलनिविट्ठदिट्ठी अणिमिसनयणे ईसिपब्भारगएणं काएणं अहापणिहिएहिं गत्तेहिं सव्विंदिएहिं गुत्तेहिं एगरातियं महापडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि ।
[२२] (अब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अपना वृत्तान्त कहते हैं— ) हे गौतम! उस काल और उस समय में मैं छद्मस्थ अवस्था में था; मेरा दीक्षापर्याय ग्यारह वर्ष का था । उस समय मैं निरन्तर छट्ठ-छट्ठ (बेले-बेले) तप करता हुआ, संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूर्वानुपूर्वी (क्रम) से विचरण करता हुआ, ग्रामानुग्राम घूमता हुआ, जहाँ सुंसुमारपुर नगर था, और जहाँ अशोकवनषण्ड नामक उद्यान था, वहाँ श्रेष्ठ अशोक तरु के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक के पास आया। मैंने उस समय अशोकतरु के नीचे स्थित पृथ्वीशिलापट्टक पर ( खड़े होकर) अट्ठमभक्त (तेले का) तप ग्रहण किया। (उस समय) मैंने दोनों पैरों को परस्पर सटा (इकट्ठा कर लिया। दोनों हाथों को नीचे की ओर लटकाए (लम्बे किये) हुए सिर्फ एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर (टिका) कर, निर्निमेषनेत्र ( आँखों की पलकों को न झपकाते हुए) शरीर के अग्रभाग को कुछ झुका कर, यथावस्थित गात्रों (शरीर के अंगों) से एवं समस्त इन्द्रियों को गुप्त (सुरक्षित) करके एकरात्रिकी महा (भिक्षु) प्रतिमा को अंगीकार करके कायोत्सर्ग किया।
२३. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरचंचा रायहाणी अणिंदा अपुरोहिया या वि होत्था । तए णं से पूरणे बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाइं परियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता सट्ठि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए उववायसभाए जाव इंदत्ताए उववन्ने ।
[२३] उस काल और उस समय में चमरचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित थी । (इधर ) पूरण नामक बालतपस्वी पूरे बारह वर्ष तक ( दानामा) प्रव्रज्या पर्याय का पालन करके, एकमासिक संल्लेखना की आराधना से अपनी आत्मा को सेवित करके, साठ भक्त (साठ टंक तक) अनशन रख कर (आहार- पानी का विच्छेद करके), मृत्यु के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके चमरचंचा