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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र घुमाता हुआ, उसे विशेष रूप से चमकाता हुआ, उस उत्कृष्ट दिव्य देवगति से यावत् तिरछे असंख्येय द्वीपसमुद्रों के बीचोंबीच होकर निकला। यों निकल कर जिस ओर सौधर्मकल्प (देवलोक) था, सौधर्मावतंसक विमान था और जहाँ सुधर्मासभा थी, उसके निकट पहुँचा। वहाँ पहुँच कर उसने एक पैर पद्मवरवेदिका पर रखा और दूसरा पैर सुधर्मा सभा में रखा। फिर बड़े जोर से हुंकार (आवाज) करके उसने परिघरत्न से तीन बार इन्द्रकील (शक्रध्वज अथवा मुख्य द्वार के दोनों कपाटों के अर्गलास्थान) को पीटा (प्रताडित किया)। तत्पश्चात् उसने (जोर से चिल्ला कर) इस प्रकार कहा—'अरे! वह देवेन्द्र देवराज शक्र कहाँ है ? कहाँ हैं उसके वे चौरासी हजार सामानिक देव? यावत् कहाँ है उसके वे तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव? कहाँ गई वे अनेक करोड़ अप्सराएँ ? आज ही मैं उन सबको मार डालता हूँ, आज ही उनका मैं वध कर डालता हूँ। जो अप्सराएँ मेरे अधीन नहीं हैं, वे अभी मेरी वशवर्तिनी हो जाएँ।' ऐसा करके चमरेन्द्र ने वे अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनोहर और कठोर उद्गार निकाले।
२९. तए णं से सक्के देविंदे देवराया तं अणिठं जाव अमणामं अस्सुयपुव्वं फरुसं गिरं सोच्चा निसम आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु चमरं असुरिदं असुररायं एवं वदासी—'हं भो! चमरा! असुरिंदा! असुरराया! अपत्थियपत्थया! जाव हीणपुण्णचाउद्दसा! अन्जं न भवसि, नहि ते सुहमत्थि' त्ति कटु तत्थेव सीहासणवरगते वजं परामुसइ, २ तं जलंतं फुडतं तडतडतं उक्कासहस्साई विणिम्मयुमाणं २, जालासहस्साइं पमुंचमाणं २, इंगालसहस्साई पविक्खिरमाणं २, फुलिंगजालामालासहस्सेहिं चक्खुविक्खेवदिट्ठिपडिघातं पि पकरेमा हुतवहअतिरेगतेयदिप्पंतं जइणवेगं फुल्लकिंसुयसमाणं महब्भयं भयकरं चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जं निसिरइ।
___ [२९] तदनन्तर (चमरेन्द्र द्वारा पूर्वोक्तरूप से उत्पात मचाये जाने पर) देवेन्द्र देवराज शक्र (चमरेन्द्र के) इस (उपर्युक्त) अनिष्ट, यावत् अमनोज्ञ और अश्रुतपूर्व (पहले कभी न सुने हुए) कर्णकटु वचन सुन-समझ कर एकदम (तत्काल) कोपायमान हो गया। यावत् क्रोध से (होठों को चबाता हुआ) बड़बड़ाने लगा तथा ललाट पर तीन सल (रेखाएँ) पड़ें, इस प्रकार से भुकृटि चढ़ा कर शक्रेन्द्र असुरेन्द्र असुरराज चमर से यों बोला हे! भो (अरे!) अप्रार्थित (अनिष्ट-मरण) के प्रार्थक (इच्छुक)! यावत् हीनपुण्या (अपूर्ण) चतुर्दशी के जन्मे हुए असुरेन्द्र ! असुरराज! चमर! आज तू नहीं रहेगा; (तेरा
अस्तित्व समाप्त हो जायेगा) आज तेरी खैर (सुख) नहीं है। (यह समझ ले) यों कह कर अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठे-बैठे ही शक्रेन्द्र ने अपना वज्र उठाया और उस जाज्वल्यमान, विस्फोट करते हुए, तड़तड़ शब्द करते हुए हजारों उल्काएँ छोड़ते हुए, हजारों अग्निज्वालाओं को छोड़ते हुए, हजारों अंगारों को बिखेरते हुए, हजारों स्फुलिंग (चिनगारियों) की ज्वालाओं से उस पर दृष्टि फेंकते ही आँखों के आगे चकाचौंध के कारण रुकावट डालने वाले, अग्नि से अधिक तेज से देदीप्यमान, अत्यन्त वेगवान् खिले हुए टेसू (किंशुक) के फूल के समान लाल-लाल, महाभयावह एवं भयंकर वज्र को असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र के वध के लिए छोड़ा।
३०. तए णं से चमरे असुरिदे असुरराया तं जलंत जाव भयंकर वजमभिमुहं आवयमाणं