Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र __'अस्तिकाय' का निर्वचन–'अस्ति' का अर्थ है—प्रदेश और 'काय' का अर्थ है–समूह। अतः अस्तिकाय का अर्थ हुआ—'प्रदेशों का समूह' अथवा 'अस्ति' शब्द त्रिकालसूचक निपात (अव्यय) है। इस दृष्टि से अस्तिकाय का अर्थ हुआ—जो प्रदेशों का समूह भूतकाल में था, वर्तमानकाल में है और भविष्यकाल में रहेगा।
पांचों का यह क्रम क्यों?—धर्म शब्द मंगल सूचक होने से द्रव्यों में सर्वप्रथम धर्मास्तिकाय बताया है। धर्मास्तिकाय से विपरीत अधर्मास्तिकाय होने से उसे धर्मास्तिकाय के बाद रखा गया। इन दोनों के लिये आकाशास्तिकाय आधाररूप होने से इन दोनों के बाद उसे रखा गया। आकाश की तरह जीव भी अनन्त और अमूर्त होने से इन दोनों तत्वों में समानता की दृष्टि से आकाशास्तिकाय के बाद जीवास्तिकाय को रखा गया। पुद्गल द्रव्य जीव के उपयोग में आता है, इसलिए जीवास्तिकाय के बाद पुद्गलास्तिकाय कहा गया।
पंचास्तिकाय का स्वरूप-विश्लेषण-धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य वर्णादि रहित होने से अरूपी-अमूर्त हैं, किन्तु वे धर्म (स्वभाव) रहित नहीं हैं। धर्मास्तिकायादि द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत हैं, प्रदेशों की अपेक्षा अवस्थित हैं, धर्मास्तिकायादि प्रत्येक लोकद्रव्य (पंचास्तिकायरूप लोक के अंशरूप द्रव्य) हैं। गुण की अपेक्षा धर्मास्तिकाय गति-गुण वाला है, जैसे मछली आदि के गमन करने में पानी सहायक होता है, वैसे ही धर्मास्तिकाय गतिक्रिया में परिणत हुए जीवों और पुद्गलों को सहायता देता है। किन्तु स्वयं गतिस्वभाव से रहित है-सदा स्थिर ही रहता है, फिर भी वह गति में निमित्त होता है। अधर्मास्तिकाय स्थिति क्रिया में परिणत हुए जीवों और पुद्गलों को सहायता देता है, जैसे विश्राम चाहने वाले थके हुए पथिक को छायादार वृक्ष सहायक होता है। अवगाहन गुण वाला आकाशास्तिकाय जीवादि द्रव्यों को अवकाश देता है, जैसे बेरों को रखने में कुण्डा आधारभूत होता है। जीवास्तिकाय उपयोगगुण (चैतन्य या चित्-शक्ति) वाला है। पुद्गलास्तिकाय ग्रहण-गुण वाला है। क्योंकि औदारिकादि अनेक पुद्गलों के साथ जीव का ग्रहण (परस्पर सम्बन्ध) होता है। अथवा पुद्गलों का परस्पर में ग्रहण-बन्ध होता है। धर्मास्तिकायादि के स्वरूप का निश्चय
७. [१] एगे भंते! धम्मत्थिकायपदेसे 'धम्मत्थिकाए' त्ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा! णो इणढे समठे। [७-१ प्र.] भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ?
[७-१ उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अर्थात् धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता।
[२] एवं दोण्णि तिण्णि चत्तारि पंच छ सत्त अट्ट नव दस संखेज्जा असंखेज्जा भंते! धम्मत्थिकायप्पदेसा 'धम्मत्थिकाए' त्ति वत्तव्वं सिया ?
गोयमा! णो इणढे समठे।
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १४८