Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय शतक : उद्देशक - १]
[ २७९
राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव के भगवत्सेवा में आगमन वृत्तान्त का अतिदेश—संक्षेप में ईशानेन्द्र के आगमन वृत्तान्त के मुद्दे इस प्रकार हैं
(१) सामानिक आदि परिवार से परिवृत ईशानेन्द्र ने अवधिज्ञान द्वारा श्रमण भगवान् महावीर को राजगृह में विराजे हुए देख, वहीं से वंदन किया।
(२) आभियोगिक देवों को राजगृह में एक योजन क्षेत्र साफ करने का आदेश ।
(३) सेनाधिपति द्वारा सभी देव देवियों को ईशानेन्द्र की सेवा में उपस्थित होने की घंटारव द्वारा
घोषणा ।
(४) समस्त देव-देवियों से परिवृत होकर एक लाख योजन विस्तृत विमान में बैठकर ईशानेन्द्र भगवद् वंदनार्थ निकला। नन्दीश्वर द्वीप में विश्राम। विमान को छोटा बनाकर राजगृह में विमान से उतर कर भगवान् के समवसरण में प्रवेश । भगवान् को वंदन - नमस्कार कर पर्युपासना में लीन हुआ ।
(५) सर्वज्ञ प्रभु की सेवा में गौतमादि महर्षियों को दिव्य नाटकादि विधि दिखाने की इच्छा प्रकट की। उत्तर की अपेक्षा न रखकर वैक्रियप्रयोग से दिव्यमण्डप, मणिपीठिका और सिंहासन बनाए । सिंहासन पर बैठ कर दांए और बांए हाथ से १०८ - १०८ देवकुमार - देवकुमारियाँ निकालीं। फिर वाद्यों और गीतों के साथ बत्तीस प्रकार का नाटक बतलाया। इसके पश्चात् अपनी दिव्य ऋद्धि-वैभव-प्रभावकान्ति आदि समेट कर पूर्ववत् अकेला हो गया ।
(६) फिर अपने परिवार सहित ईशानेन्द्र भगवान् को वंदन - नमस्कार करके वापस अपने स्थान को लौट गया । १ कूटाकारशालादृष्टान्तपूर्वक ईशानेन्द्रऋद्धि की तत्शरीरानुप्रविष्ट-प्ररूपणा
३४. [ १ ] 'भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति, २ एवं वदासी— अहो णं भंते! ईसाणे देविंदे देवराया महिड्ढीए। ईसाणस्स णं भंते! सा दिव्वा देविड्ढी कहिं गता ? कहिं अणुपविट्ठा ?
गोयमा ! सरीरं गता, सरीरं अणुपविट्ठा ।
[३४-१ प्र.] ‘हे भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार कहा— (पूछा— ) 'अहो, भगवन्! देवेन्द्र देवराज ईशान इतनी महाऋद्धि वाला है ! भगवन् ! ईशानेन्द्र की वह (नाट्य-प्रदर्शनकालिक) दिव्य देवऋद्धि (अब) कहाँ चली गई ? कहाँ प्रविष्ट हो गई ?'
[३४-१ उ.] गौतम! (ईशानेन्द्र द्वारा पूर्वप्रदर्शित) वह दिव्य देवऋद्धि ( उसके) शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई है।
१.
[२] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चति सरीरं गता, सरीरं अणुपविट्ठा ?
गोयमा! से जहानामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया
(क) रायपसेणीयसुत्तं पत्र० ४४ से ५४ तक का सार । (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १६२ - १६३