Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय शतक : उद्देशक - १]
खादिम,
जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर स्वयमेव लकड़ी का पात्र बनाया। फिरं अशन, पान, स्वादिम रूप चारों प्रकार का आहार तैयार करवाया। तत्पश्चात् उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त किया, शुद्ध और उत्तम वस्त्र ठीक से पहने, और अल्पभार तथा बहुमूल्य आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया। तत्पश्चात् भोजन के समय वह तामली गृहपति भोजनमण्डप में आकर शुभासन पर सुखपूर्वक बैठा। इसके बाद (आमंत्रित) मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन सम्बन्धी एवं परिजन आदि साथ उस तैयार कराए हुए) विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चतुर्विध आहार का आस्वादन करता (चखता) हुआ, विशेष स्वाद लेता हुआ, दूसरों को परोसता हुआ भोजन कराता हुआ — और स्वयं भोजन करता हुआ तामली गृहपति विहरण कर रहा था ।
३७. जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूए तं मित्त जाव परियणं विलेणं असणपाण० ४ पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लाऽलंकारेण य सक्कारेइ, २ तस्सेव मित्त - नाइ जाव परियणस्स पुरओ जेट्ठं पुत्तं कुटुम्बे ठावेइ, २ त्ता तं मित्त-नाइ - णियगसंबंधिपरिजणं जेट्ठपुत्तं च आपुच्छइ, २ मुण्डे भवित्ता पाणामाए पव्वज्जाए पव्वइए । पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ' कप्पड़ मे जावज्जीवाए छट्ठछट्ठेणं जाव आहरित्तए' त्ति कट्टु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, २ त्ता जावज्जीवाए छट्ठछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिब्भिय २ सूराभिमुहे आतावणभूमीए आतावेमाणे विहरइ । छट्ठस्स वि य णं पारणयंति आतावणभूमीओ पच्चोरुभइ, २ सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय तामलित्तीए नगरीए उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ, २ सुद्धोयणं पडिग्गाहेइ, २ तिसत्तखुत्तो उदरणं पक्खालेइ, तओ पच्छा आहारं आहारेइ ।
[३७] भोजन करने के बाद उसने पानी से हाथ धोये, और चुल्लू में पानी लेकर शीघ्र आचमन (कुल्ला) किया, मुख साफ करके स्वच्छ हुआ । फिर उन सब मित्र - ज्ञाति - स्वजन - परिजनादि का विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, माला, अलंकार आदि से सत्कारसम्मान किया । फिर उन्हीं मित्र स्वजन आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित किया—— (अर्थात् उसे कुटुम्ब का भार सौंपा ) । तत्पश्चात् उन्हीं मित्र- स्वजन आदि तथा अपने ज्येष्ठ पुत्र को पूछकर और मुण्डित होकर 'प्रणामा' नाम की प्रव्रज्या अंगीकार की।
प्राणामा- प्रव्रज्या में प्रव्रजित होते ही तामली ने इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण किया—' आज से मेरा कल्प यह होगा कि मैं आजीवन निरन्तर छट्ठ-छट्ट (बेले- बेले) तप करूंगा, यावत् पूर्वकथितानुसार भिक्षाविधि से केवल भात ( पके हुए चावल ) लाकर उन्हें २१ बार पानी से धोकर उनका आहार करूंगा।' इस प्रकार अभिग्रह धारण करके वह तामली तापस यावज्जीवन निरन्तर बेले- बेले तप करके दोनों भुजाएँ ऊँची करके आतपनाभूमि में सूर्य के सम्मुख आतापना लेता हुआ विचरण करने लगा। बेले
पार के दिन आतापनाभूमि से नीचे उतरकर स्वयं काष्ठपात्र लेकर ताम्रलिप्ती नगरी में ऊँच नीच और मध्यम कुलों के गृह - समुदाय से विधिपूर्वक भिक्षा के लिए घूमता था । भिक्षा में वह केवल भात लाता और उन्हें २१ बार पानी से धोता था, तत्पश्चात् आहार करता था ।
विवेचन — ईशानेन्द्र का पूर्वभव : तामली का संकल्प और प्राणामा प्रव्रज्या ग्रहण ——— प्रस्तुत