Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय शतक : उद्देशक-१]
[२८५ तहा पणामं करेइ। से तेणढेणं जाव पव्वज्जा।
___ [३८ प्र.] भगवन्! तामली द्वारा ग्रहण की हुई प्रव्रज्या "प्राणामा" कहलाती है, इसका क्या कारण है ?
[३८ उ.] हे गौतम! प्राणामा प्रव्रज्या में प्रव्रजित होने पर वह (प्रव्रजित) व्यक्ति जिसे जहाँ देखता है, (उसे वहीं प्रणाम करता है।) (अर्थात्-) इन्द्र को, स्कन्द (कार्तिकेय) को, रुद्र (महादेव) को, शिव (शंकर या किसी व्यन्तरविशेष) को, वैश्रमण (कुबेर) को, आर्या (प्रशान्तरूपा पार्वती) को, रौद्ररूपा चण्डिका (महिषासुरमर्दिनी चण्डी) को, राजा को, यावत् सार्थवाह को, (अर्थात् राजा, युवराज, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी एवं सार्थवाह—बनजारे को) अथवा कौआ, कुत्ता और श्वपाक-चाण्डाल (आदि सबको प्रणाम करता है।) इनमें से उच्च व्यक्ति को देखता है, उच्च-रीति से प्रणाम करता है, नीच को देखकर नीची रीति से प्रणाम करता है। (अर्थात्-) जिसे जिस रूप में देखता है, उसे उसी रूप में प्रणाम करता है। इस कारण हे गौतम! इस प्रव्रज्या का नाम "प्राणामा" प्रव्रज्या है।
विवेचन—प्रव्रज्या का नाम "प्राणामा" रखने का कारण प्रस्तुत सूत्र में तामली गृहपति द्वारा गृहीत प्रव्रज्या को प्राणामा कहने का आशय व्यक्त किया गया है।
'प्राणामा' का शब्दशः अर्थ —भी यह होता है जिसमें प्रत्येक प्राणी को यथायोग्य प्रणाम करने की क्रिया विहित हो।
कठिन शब्दों के अर्थ वेसमणं-उत्तरदिग्पाल कुबेरदेव। कोट्टकिरियं-महिषासुर को पीटने (कूटने) की क्रिया वाली चण्डिका। उच्चं-पूज्य को, नीयं-अपूज्य को, उच्चं पणामं अतिशय प्रणाम, नीयं पणामं अत्यधिक प्रणाम नहीं करता। बालतपस्वी तामली द्वारा पादपोपगमन-अनशन ग्रहण
३९. तए णं से तामली मोरियपुत्ते तेणं ओरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बालतवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे जाव धमणिसंतते जाए यावि होत्था।
[३९] तत्पश्चात् वह मौर्यपुत्र तामली तापस उस उदार, विपुल, प्रदत्त और प्रगृहीत बाल (अज्ञान) तप द्वारा (अत्यन्त) सूख (शुष्क हो) गया, रूक्ष हो गया, यावत् (इतना दुर्बल हो गया कि) १. वर्तमान में भी वैदिक सम्प्रदाय में प्राणामा' प्रव्रज्या प्रचलित है। इस प्रकार की प्रव्रज्या में दीक्षित हुए एक सज्जन के
सम्बन्ध में 'सरस्वती' (मासिक पत्रिका भाग १३, अंक १, पृष्ठ १८०) में इस प्रकार के समाचार प्रकाशित हुए हैं"... इसके बाद सब प्राणियों में भगवान् की भावना दृढ़ करने और अहंकार छोड़ने के इरादे से प्राणिमात्र को ईश्वर समझकर आपने साष्टांग प्रणाम करना शुरु किया। जिस प्राणी को आप आगे देखते, उसी के सामने अपने पैरों पर आप जमीन पर लेट जाते। इस प्रकार ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक और गौ से लेकर गधे तक को आप साष्टांग नमस्कार करने लगे।" प्रस्तुत शास्त्र में उल्लिखित 'प्राणामा' प्रव्रज्या और 'सरस्वती' में प्रकाशित उपर्युक्त घटना, दोनों की प्रवृत्ति समान प्रतीत होती है। किन्तु ऐसी प्रवृत्ति सम्यग्ज्ञान के अभाव की सूचक है।
-भगवती विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. २, पृ.५९४ से २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक १६४ ३. यहाँ 'जाव' शब्द से.... 'भुक्खे, निम्मंसे निस्सोएिण किडिकिडियाभूए अट्टि चम्मावणधे किसे' यह पाठ
जानना चाहिए।