Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय शतक : उद्देशक-१]
[२६३ कारण ही इन्हें "गौतम" शब्द से सम्बोधित किया है, किन्तु उनका पृथक्-पृथक् व्यक्तित्व दिखलाने के लिए 'द्वितीय' और 'तृतीय' विशेषण उनके नाम से पूर्व लगा दिया गया है।
दो दृष्टान्तों द्वारा स्पष्टीकरण—चमरेन्द्र वैक्रियकृत बहुत-से असुरकुमार देव-देवियों से इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को किस प्रकार ठसाठस भर देता है ? इसे स्पष्ट करने के लिए यहाँ दो दृष्टान्त दिये गये हैं—(१) युवक और युवती का परस्पर संलग्न होकर गमन, (२) गाड़ी के चक्र की नाभि (धुरी) का आरों से युक्त होना। वृत्तिकार ने इनकी व्याख्या यों की है—(१) जैसे कोई युवापुरुष काम के वशवर्ती होकर युवती स्त्री का हाथ दृढ़ता से पकड़ता है, (२) जैसे गाड़ी के पहिये की धुरी चारों ओर आरों से युक्त हो, अथवा 'जिस धुरी में आरे दृढतापूर्वक जुड़े हुए हों। वृद्ध आचार्यों ने इस प्रकार व्याख्या की है—जैसे—यात्रा (मेले) आदि में जहाँ बहुत भीड़ होती है, वहाँ युवती स्त्री युवा पुरुष के हाथ को दृढ़ता से पकड़कर उसके साथ संलग्न होकर चलती है। जैसे वह स्त्री उस पुरुष से संलग्न होकर चलती हुई भी उस पुरुष से पृथक् दिखाई देती है, वैसे ही वैक्रियकृत अनेकरूप वैक्रियकर्ता मूलपुरुष के साथ संलग्न होते हुए भी उससे पृथक् दिखाई देते हैं। अथवा अनेक आरों से प्रतिबद्ध पहिये की धुरी सघन (पोलाररहित) और छिद्ररहित दिखाई देती है। इसी तरह से वह असुरेन्द्र असुरराज चमर अपने शरीर के साथ प्रतिबद्ध (संलग्न) वैक्रियकृत अनेक असुरकुमार देव-देवियों से पृथक् दिखाई देता हुआ इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को ठसाठस भर देता है। इसी प्रकार अन्य देवों की विकुर्वणाशक्ति के विषय में समझ लेना चाहिए।
विक्रिया-विकुर्वणा—यह जैन पारिभाषिक शब्द है। नारक, देव, वायु, विक्रियालब्धिसम्पन्न कतिपय मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपने शरीर को लम्बा, छोटा, पतला, मोटा, ऊँचा, नीचा, सुन्दर और विकृत अथवा एकरूप से अनेकरूप धारण करने हेतु जो क्रिया करते हैं, उसे 'विक्रिया' या "विकुर्वणा' कहते हैं। उससे तैयार होने वाले शरीर को 'वैक्रिय शरीर' कहते हैं। वैक्रिय-समुद्घात द्वारा यह विक्रिया होती है।
वैक्रियसमुद्घात में रत्नादि औदारिक पुद्गलों का ग्रहण क्यों ? इसका समाधान यह है कि वैक्रिय-समुद्घात में ग्रहण किये जाने वाले रत्न आदि पुद्गल औदारिक नहीं होते, वे रत्न-सदृश सारयुक्त होते हैं, इस कारण यहाँ रत्न आदि का ग्रहण किया गया है। कुछ आचार्यों के मतानुसार रत्नादि औदारिक पुद्गल भी वैक्रिय-समुद्घात द्वारा ग्रहण करते समय वैक्रिय पुद्गल बन जाते हैं।
आइण्णे वितिकिण्णे आदि शब्दों के अर्थ-मूलपाठ में प्रयुक्त 'आइण्णे' आदि६ शब्द प्रायः एकार्थक हैं, और अत्यन्तरूप से व्याप्त कर (भर) देता है, इस अर्थ को सूचित करने के लिए हैं; फिर भी इनके अर्थ में थोड़ा-थोड़ा अन्तर इस प्रकार है-आइण्णं आकीर्ण-व्याप्त, वितिकिण्णं विशेषरूप से
(ग) समवायांग-११वाँ समवाय।
१. (क) भगवती सूत्र के थोकड़े, द्वितीय भाग पृ.१
(ख) भगवतीसूत्र (टीकानुवादसहित पं.बेचरदासजी), खण्ड २, पृ.३ २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १५४ ३. भगवतीसूत्र (टीकानुवादसहित पं. बेचरदासजी), खण्ड २, पृ. १० ४. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १५४