Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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छट्ठो उद्देसो : भासा
छठा उद्देशक : भाषा भाषा का स्वरूप और उससे सम्बन्धित वर्णन
१. से णूणं भंते! "मन्नामी" ति ओघारिणी भासा ? एवं भासापदं भाणियव्वं।
॥बितीय सए छट्ठो उद्देसो समत्तो॥ [१ प्र.] भगवन् ! भाषा अवधारिणी है; क्या मैं ऐसा मान लूँ ?
[१ उ.] गौतम! उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र के ग्यारहवें भाषापद का समग्र वर्णन जान लेना चाहिए।
विवेचन भाषा का स्वरूप और उससे सम्बन्धित वर्णन—प्रस्तुत छठे उद्देशक में एक ही सूत्र द्वारा प्रज्ञापनासूत्र के भाषापद में वर्णित समग्र वर्णन का निर्देश कर दिया गया है।
भाषासम्बन्धी विश्लेषण प्रज्ञापनासूत्र के ११वें भाषापद में अनेक द्वारों से भाषा का पृथक्पृथक् वर्णन किया गया है। यथा-(१) भेद-भाषा के ४ भेद हैं-सत्या, असत्या, सत्या-मृषा (मिश्र) और असत्याऽऽमृषा (व्यवहारभाषा) (२) भाषा का आदि(मूल)कारण-जीव है।(३) भाषा की उत्पत्ति (औदारिक, वैक्रिय तथा आहारक) शरीर से होती है।(४)भाषा का संस्थान वज्र के आकार का है। (५) भाषा के पुद्गल-लोक के अन्त तक जाते हैं। (६) भाषारूप में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गल-अनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्ध पुद्गल, असंख्यात आकाशप्रदेशों को अवगाहित पुद्गल; एक समय, दो समय यावत् दस समय संख्यात और असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और ८ स्पर्शों में से ४ स्पर्श (स्निग्ध, रूक्ष, ठंडा, गर्म) वाले पुद्गल, तथा नियमतः छह दिशा के पुद्गल भाषा के रूप में गृहीत होते हैं। (७)सान्तर-निरन्तर-भाषावर्गणा के पुद्गल निरन्तर गृहीत होते हैं, किन्तु सान्तर त्यागे (छोड़े) जाते हैं। सान्तर का अर्थ यह नहीं कि बीच में रुक-रुक कर त्यागे जाते हैं, अपितु सान्तर का वास्तविक अर्थ यह है कि प्रथम समय में गृहीत भाषापुद्गल दूसरे समय में, तथा दूसरे समय में गृहीत तीसरे समय में त्यागे जाते हैं, इत्यादि। प्रथम समय में सिर्फ ग्रहण होता है, और अन्तिम समय में सिर्फ त्याग होता है; बीच के समयों में निरन्तर दोनों क्रियाएँ होती रहती हैं। यही सान्तर-निरन्तर का तात्पर्य है।(८) भाषा की स्थिति-जघन्य एक समय की, उत्कृष्ट असंख्येय समय की।(९) भाषा का अन्तर (व्यवधान) जघन्य अन्तर्मुहूर्त का, उत्कृष्ट अनन्तकाल का है।(१०)भाषा के पुद्गलों का ग्रहण और त्याग ग्रहण काययोग से और त्याग वचनयोग से। ग्रहणकाल-जघन्य एक समय, उत्कृष्ट असंख्येय समय, त्यागकाल-जघन्य दो समय, उत्कृष्ट असंख्येय सामयिक अन्तर्मुहूर्त। (११) किस योग से, किस निमित्त से, कौनसी