Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यह असंदिग्ध है, भगवन्! यह इष्ट है, यह प्रतीष्ट (अभीष्ट) है, हे भगवन् ! यही इष्ट और विशेष इष्ट है' इस प्रकार वाणी से अप्रतिकूल (अनुकूल) होकर विनयपूर्वक वाणी से पर्युपासना करते हैं तथा मन से (हृदय में) संवेगभाव उत्पन्न करते हुए, तीव्र धर्मानुराग में रंगे हुए विग्रह (कलह) और प्रतिकूलता (विरोध) से रहित बुद्धि होकर, मन को अन्यत्र कहीं न लगाते हुए विनयपूर्वक (मानसिक) उपासना करते हैं।
विवेचन तुंगिकानिवासी श्रमणोपासक पापित्यीय स्थविरों की सेवा में प्रस्तुत दो सूत्रों में शास्त्रकार ने तुंगिका के श्रमणोपासकों द्वारा भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविरमुनियों के दर्शन, प्रवचनश्रवण, वन्दन-नमन, विनयभक्ति पर्युपासना आदि को महाकल्याणकारक फलदायक समझकर उनके गुणों से आकृष्ट होकर उनके दर्शन, वन्दना, पर्युपासना आदि के लिए पहुँचने का वर्णन किया है। इस वर्णन से भगवान् महावीर के श्रमणोपासकों की गुणग्राहकता, उदारता, नम्रता और शिष्टता का परिचय मिलता है। पार्श्वनाथतीर्थ के साधुओं को भी उन्होंने स्वतीर्थीय साधुओं की तरह ही वन्दना-नमस्कार, विनय-भक्ति एवं पर्युपासना की थी। साम्प्रदायिकता की गन्ध तक न आने दी।
कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता—दो विशेष अर्थ (१) उन्होंने दुःस्वप्न आदि के दोष निवारणार्थ कौतुक और मंगलरूप प्रायश्चित्त किया, (२) उन्होंने कौतुक अर्थात् मषी का तिलक और मंगल अर्थात् —दही, अक्षत, दूब के अंकुर आदि मांगलिक पदार्थों से मंगल किया और पायच्छित्त यानी पादच्छुप्त एक प्रकार के पैरों पर लगाने के नेत्र दोष निवारणार्थ तेल का लेपन किया।
१५. तए णं ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं तीसे य महतिमहालियाए परिसाए चााउज्जामं धम्म परिकहेंति, जहा केसिसामिस्स जाव समणोवासियत्ताए आणाए आराहगे भवंति जाव धम्मो कहिओ।
_ [१५] तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों तथा उस महती परिषद् (धर्मसभा) को केशीश्रमण की तरह चातुर्याम-धर्म (चार याम वाले धर्म) का उपदेश दिया। यावत्...वे श्रमणोपासक अपनी श्रमणोपासकता द्वारा (उन स्थविर भगवन्तों की) आज्ञा के आराधक हुए। यावत् धर्मकथा पूर्ण हुई। तुंगिक के श्रमणोपासकों के प्रश्न और स्थविरों के उत्तर
१६. तए णं ते समणोवासया थेराणं भगवंताणं अंतिए, धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुटु जाव हयहिदया तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, २ जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति, २ एवं वदासी
संजमे णं भंते! किंफले? तवे णं भंते ! किंफले ? तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वदासी-संजमेणं अज्जो! अणण्हयफले,
१. भगवतीसूत्र टीकाऽनुवाद (पं.बेचरदासजी) खण्ड १, पृ. २८७ २. काजल की टिकी नजर दोष से बचने के लिए लगाई जाती है। ३. 'जाव' पद से यहाँ निम्नोक्त राजप्रश्नीय सूत्र (पृ.१२०) में उल्लिखित केशीस्वामि-कथित धर्पोपदेशादि का वर्णन
समझना चाहिए-'तीसे महतिमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं...सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं....' इत्यादि-भगवती मू. पा.टि.,पृ.१०३-१०४