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द्वितीय शतक : उद्देशक-५]
[२१७ तुंगिका में अनेक गुणसम्पन्न पापित्यीय स्थविरों का पदार्पण
१२. तेणं कालेणं २ पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूपसंपन्ना विणयसंपन्ना णाणसंपन्ना दंसणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघवसंपन्ना
ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जितकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियनिद्दा जितिंदिया जितपरीसहा जीवियासा-मरणभयविप्पमुक्का जाव' कुत्तियावणभूता बहुस्सुया बहुपरिवारा, पंचहिं अणगारसतेहिं सद्धिं, संपरिवुडा, अहाणुपुव्विं चरमाणा, गामाणुगामं दूइज्जमाणा, सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव तुंगिया नगरी, जेणेव पुप्फवतीए चेतिए तेणेव उवागच्छंति, २ अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ताणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
[१२] उस काल और उस समय में पार्वापत्यीय (भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य) स्थविर भगवान् पाँच सौ अनगारों के साथ यथाक्रम से चर्या करते हुए, ग्रामानुग्राम जाते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए जहाँ तुंगिका नगरी थी और जहाँ (उसके बाहर ईशानकोण में) पुष्पवतिक चैत्य (उद्यान) था, वहाँ पधारे। वहाँ पधारते ही यथानुरूप अवग्रह (अपने अनुकूल मर्यादित स्थान की याचना करके आज्ञा) लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ विहरण करने लगे। वे स्थविर भगवन्त जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाघवसम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी (विशिष्ट प्रभाव युक्त) और यशस्वी थे। उन्होंने क्रोध, मान, माया, लोभ, निद्रा, इन्द्रियों और परीषहों को जीत लिया था। वे जीवन (जीने) की आशा और मरण के भय से विमुक्त थे, यावत् (यहाँ तक कि) वे कुत्रिकापणभूत (जैसे कुत्रिकापण में तीनों लोकों की आवश्यक समस्त वस्तुएँ मिल जाती हैं, वैसे ही वे समस्त अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति में समर्थ अथवा समस्त गुणों की उपलब्धि से युक्त) थे। वे बहुश्रुत और बहुपरिवार वाले थे।
विवेचन तुंगिका में अनेक गुणसम्पन्न पाश्र्वापत्यीय स्थविरों का पदार्पण प्रस्तुत सूत्र में अनेक श्रमणगुणों के धनी पार्श्वनाथ-शिष्यानुशिष्य श्रुतवृद्ध स्थविरों का वर्णन किया गया है। कुत्रिकापण-कु-पृथ्वी, त्रिक-तीन, आपण दूकान। अर्थात् जिसमें तीनों लोक की वस्तुएँ मिलें, ऐसी देवाधिष्ठित दूकान को कुत्रिकापण कहते हैं। वच्चंसी-वर्चस्वी, वचस्वी (वाग्मी), अथवा वृत्तस्वी (वृत्त-चारित्र रूपी धन वाले) तुंगिकानिवासी श्रमणोपासक पाश्र्वापत्यीय स्थविरों की सेवा में
१३. तए ण तुंगियाए नगरीय सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-महापहपहेसु जावई
'जाव' शब्द से यहाँ स्थविरों के ये विशेषण और समझ लेने चाहिए-'तवप्पहणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा निग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा मद्दवप्पहाणा अज्जवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा एवं विज्जामंत-वेय-बंभ-नय-नियम-सच्च-सोयप्पहाणा चारुप्पण्णा सोही अणियाणा अप्पुस्सुया अबहिल्लेसा सुसामण्णरया
अच्छिद्दपसिणवागरणा कुत्तियावण'-भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक १६६ २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १३६-१३७ ३. 'जाव' शब्द यहाँ निम्नोक्त पाठ का सूचक है-'बहुजणसद्देइ वा जणबोले इवा जणकलकले इवा जणुम्मीइ
वा जणसन्निवाए इ वा बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४ एवं खलु देवाणुप्पिया! पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना'.... इत्यादि पाठ सू. १२ के प्रारम्भ में उक्त पाठ 'विहरंति' तक समझना चाहिए।