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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नहीं करता। परन्तु वह देव वैक्रिय से स्वयं अपने ही दो रूप बनाता है। (जिसमें एक रूप देव का और एक रूप देवी का बनाता है।) यों दो रूप बनाकर वह, उस वैक्रियकृत (कृत्रिम) देवी के साथ परिचारणा करता है। इस प्रकार एक जीव एक ही समय में दो वेदों का अनुभव (वेदन) करता है, यथा-स्त्रीवेद का और पुरुषवेद का। इस प्रकार परतीर्थिक की वक्तव्यता कहनी चाहिए, और वह—'एक जीव एक ही समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद का अनुभव करता है' यहाँ तक कहना चाहिए। भगवन्! यह इस प्रकार कैसे हो सकता है ? अर्थात् क्या यह अन्यतीर्थिकों का कथन सत्य है ?
[१उ.] हे गौतम! वे अन्यतीर्थिक जो यह कहते यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-यावत् स्त्रीवेद और पुरुषवेद; (अर्थात्-एक ही जीव एक समय में दो वेदों का अनुभव करता है;) उनका वह कथन मिथ्या है। हे गौतम! मैं इस प्रकार कहता हूँ, भाषण करता हूँ, बताता हूँ और प्ररूपणा करता हूँ कि कोई एक निर्ग्रन्थ जो मरकर. किन्हीं महर्द्धिक यावत महाप्रभावयक्त. दरगमन करने की शक्ति से सम्पन्न. दीर्घकाल की स्थिति (आयु) वाले देवलोकों में से किसी एक में देवरूप में उत्पन्न होता है, ऐसे देवलोक में वह महती ऋद्धि से युक्त यावत् दशों दिशाओं में उद्योत करता हुआ, विशिष्ट कान्ति से शोभायमान यावत् अतीव रूपवान् देव होता है। और वह देव वहाँ दूसरे देवों के साथ, तथा दूसरे देवों की देवियों के साथ उन्हें वश में करके, परिचारणा करता है और अपनी देवियों को वश में करके उनके साथ भी परिचारणा करता है; किन्तु स्वयं वैक्रिय करके अपने दो रूप बनाकर परिचारणा नहीं करता, (क्योंकि) एक जीव एक समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन दोनों वेदों में से किसी एक वेद का ही अनुभव करता है। जब स्त्रीवेद को वेदता (अनुभव करता) है, तब पुरुषवेद को नहीं वेदता; जिस समय पुरुषवेद को वेदता है, उस समय स्त्रीवेद को नहीं वेदता। स्त्रीवेद के उदय होने से पुरुषवेद को नहीं वेदता और पुरुषवेद का उदय होने से स्त्रीवेद को नहीं वेदता। अतः एक जीव एक समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन दोनों वेदों में से किसी एक वेद को ही वेदता है। जब स्त्रीवेद का उदय होता है, तब स्त्री, पुरुष की अभिलाषा करती है और जब पुरुषवेद का उदय होता है, तब पुरुष, स्त्री की अभिलाषा करता है। अर्थात् (अपने-अपने वेद के उदय से) पुरुष और स्त्री परस्पर एक दूसरे की इच्छा करते हैं। वह इस प्रकार-स्त्री, पुरुष की और पुरुष, स्त्री की अभिलाषा करता है।
विवेचन देव की परिचारणा-सम्बन्धी चर्चा–प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीर्थिकों का परिचारणा के सम्बन्ध में असंगत मत देकर, उसका निराकरण करते हुए भगवान् के मत का प्ररूपण किया गया है।
सिद्धान्त-विरुद्ध प्रत-भूतपूर्व निर्ग्रन्थ मरकर देव बनता है, तब वह न तो अन्य देव-देवियों के साथ परिचारणा करता है और न निजी देवियों के साथ। वह वैक्रियलब्धि से अपने दो रूप बनाकर परिचारणा करता है और इस प्रकार एक ही समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, दोनों का अनुभव करता है।
सिद्धान्तानुकूल मत-वह देव अन्य देव-देवियों तथा निजी देवियों के साथ परिचारणा करता है किन्तु वैक्रिय से अपने ही दो रूप बनाकर परिचारणा नहीं करता, क्योंकि सिद्धान्ततः एक जीव एक समय में एक ही वेद का अनुभव कर सकता है, एक साथ दो वेदों का नहीं। जैसे परस्पर-निरपेक्ष-विरुद्ध वस्तुएँ एक ही समय में एक स्थान पर नहीं रह सकती, यथा—अन्धकार और प्रकाश, इसी तरह स्त्रीवेद