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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र क्रमशः श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय की है और उससे असंख्यातगुणी अवगाहना रसनेद्रिय की और उससे भी संख्यातगुणी स्पर्शेन्द्रिय की अवगाहना है । इसी प्रकार का अल्पबहुत्व प्रदेशों के विषय में समझना चाहिए। ( ७-८ ) स्पृष्ट और प्रविष्ट चक्षुरिन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियाँ स्पृष्ट और प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती हैं। अर्थात् —— चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी है, शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं । (९) विषय——–श्रोत्रेन्द्रिय के ५, चक्षुरिन्द्रिय के ५, घ्राणेन्द्रिय के २, रसनेन्द्रिय के ५ और स्पर्शेन्द्रिय के ८ विषय हैं। पांचों इन्द्रियों का विषय जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है, उत्कृष्ट श्रोत्रेन्द्रिय का १२ योजन, चक्षुरिन्द्रिय का साधिक १ लाख योजन, भ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय का ९-९ योजन है । इतनी दूरी से ये स्वविषय को ग्रहण कर लेती हैं। इसके पश्चात् (१०) अनगारद्वार, (११) आहारद्वार, (१२) आदर्शद्वार, (१३) असिद्वार, (१४) मणिद्वार, (१५) उदपान (दुग्धपान ) द्वार, (१६) तैलद्वार, (१७) फाणितद्वार, (१८) वसाद्वार, (१९) कम्बलद्वार, (२०) स्थूणाद्वार, (२१) थिग्गलद्वार, (२२) द्वीपोदधिद्वार, (२३) लोकद्वार और (२४) अलोकद्वार। यों अलोकद्वार पर्यन्त चौबीस द्वारों के माध्यम से इन्द्रियसम्बन्धी प्ररूपणा की गई है।
चाहिए ।
१.
इस सम्बन्ध में विशेष विवेचन प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें इन्द्रियपद के प्रथम -
॥ द्वितीय शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
- उद्देशक से जान लेना
(क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १३१ (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २९५ से ३०८ तक