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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र . [उ.] गौतम! आधाकर्मी आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता है। अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता हुआ (साधक) पृथ्वीकाय के जीवों की अपेक्षा (परवाह) नहीं करता, और यावत्-त्रसकाय के जीवों की भी चिन्ता (परवाह) नहीं करता और जिन जीवों के शरीरों का वह भोग करता है, उन जीवों की भी चिन्ता नहीं करता। इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि अधाकर्मदोषयुक्त आहार भोगता हुआ (श्रमण) आयुकर्म को छोड़कर सात कर्मों की शिथिलबद्ध प्रकृतियों को गाढ़बन्धन-बद्ध कर लेता है, यावत् —संसार में बार-बार परिभ्रमण करता
है।
२७. फासुएसणिज्जं णं भंते! भुंजमाणे किं बंधइ जाव उवचिणाइ ?
गोयमा! फसुएसण्णिजं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपयडीओ घणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ जहा संवुडे णं (स.१ उ.१ सु. ११[२]) नवरं, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ। सेसं तहेव जाव वीतीवयति।
से केणढेणं जाव वीतीवयति ?
गोयमा! फासुएसणिज्जंणं भुंजमाणे समणे निग्गंथे आताए धम्मंणाइक्कमति, आताए धम्म अणतिक्कममाणे पुढविक्कायं अवकंखति जाव तसकायं अवकंखति, जेसि पि य णं जीवाणं सरीराइं आहारेति ते वि जीवे अवकंखति, से तेणढेणं जाव वीतीवयति।
[२७ प्र.] हे भगवन् ! प्रासुक और एषणीय आहारादि का उपभोग करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ क्या बाँधता है? यावत् किसका उपचय करता है ?
_[२७ उ.] गौतम! प्रासुक और एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, आयुकर्म को छोड़कर सात कर्मों की दृढ़बन्धन से बद्धा प्रकृतियों को शिथिल करता है। उसे संवृत अनगार के समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि आयुकर्म को कदाचित् बाँधता है और कदाचित् नहीं बाँधता। शेष उसी प्रकार समझना चाहिए; यावत् संसार को पार कर जाता है।
[प्र.] भगवन्! इसका क्या कारण है कि यावत् संसार को पार कर जाता है ?
[उ.] गौतम! प्रासुक एषणीय आहारदि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, अपने आत्मधर्म का उल्लंघन नहीं करता। अपने आत्मधर्म का उल्लंघन न करता हुआ वह श्रमण निर्ग्रन्थ पृथ्वीकाय के जीवों का जीवन चाहता है, यावत्-त्रसकाय के जीवों का जीवन चाहता है और जिन जीवों का शरीर उसके' उपभोग में आता है, उनका भी वह जीवन चाहता है। इस कारण से हे गौतम! वह यावत् संसार को पार कर जाता है।
- विवेचन—आधाकर्मी एवं एषणीय आहारादि-सेवन का फल प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमशः आधाकर्मदोषयुक्त एवं प्रासुक एषणीय आहारादि के उपभोग का फल बताया गया है।