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प्रथम शतक : उद्देशक-९]
[१५७ प्रासुकादिशब्दों के अर्थ प्रासुक-अचित्त, निर्जीव।एषणीय आहार आदि से सम्बन्धित दोषों से रहित। आधाकर्म–साधु के निमित्त सचित्त वस्तु को अचित्त की जाए अर्थात्-सजीव वस्तु को निर्जीव बनाया जाए, अचित्त वस्तु को पकाया जाए, घर मकान आदि बंधवाएँ जाएँ, वस्त्रदि बनवाए जाएँ, इसे आधाकर्म कहते हैं।
'बंधइ' आदि पदों के भावार्थ-बंधा-यह पद प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा से, या स्पृष्टबन्ध की अपेक्षा से है, पकरेइ पद स्थितिबन्ध अथवा बद्ध अवस्था की अपेक्षा से है, 'चिणइ' पद अनुभागबन्ध की अपेक्षा से अथवा निधत्त अवस्था की अपेक्षा से है। उवचिणइ' पद प्रदेशबन्ध की अपेक्षा अथवा निकाचित अवस्था की अपेक्षा से है। स्थिर-अस्थिरादि-निरूपण
२८. से नूणं भंते! अथिरे पलोट्टति, नो थिरे पलोट्टति; अथिरे भज्जति, नो थिरे भज्जति; सासए बालए, बालियत्तं आसायं; सासते पंडिते, पंडितत्तं असासतं?
हंता, गोयमा! अथिरे पलोट्टति जाव पंडितत्तं असासतं। .सेवं भंते! सेवं भंते त्ति जाव विहरति।
॥नवमो उद्देसो समत्तो॥ [२८ प्र.] भगवन्! क्या अस्थिर पदार्थ बदलता है और स्थिर पदार्थ नहीं बदलता है? क्या अस्थिर पदार्थ भंग होता है और स्थिर पदार्थ भंग नहीं होता ? क्या बाल शाश्वत है तथा बालत्व अशाश्वत है ? क्या पण्डित शाश्वत है और पण्डितत्व अशाश्वत है ?
[२८ उ.] हाँ, गौतम! अस्थिर पदार्थ बदलता है यावत् पण्डितत्व अशाश्वत है।
हे भगवन्! यह इसी प्रकार है। भगवन्! यह इसी प्रकार है ! यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरण करते हैं।
विवेचन स्थिर-अस्थिरादि निरूपण प्रस्तुत सूत्र में अस्थिर एवं स्थिर पदार्थों के परिवर्तन होने, न होने, भंग होने, न होने तथा बाल और पण्डित के शाश्वतत्व एवं बालत्व तथा पण्डितत्व के अशाश्वतत्व की चर्चा की गई है।
'अथिरे पलोट्टेइ' आदि के दो अर्थ व्यवहारपक्ष में पलट जाने वाला अस्थिर होता है; जैसे मिट्ठी का ढेला आदि अस्थिर द्रव्य अस्थिर हैं। अध्यात्मपक्ष में कर्म अस्थिर हैं, वे प्रतिसमय जीवप्रदेशों से चलित-पृथक् होते हैं। कर्म अस्थिर होने से बन्ध, उदय और निर्जीर्ण आदि परिणामों द्वारा वे बदलते रहते हैं। व्यवहारपक्ष में पत्थर की शिला स्थिर है, वह बदलती नहीं, अध्यात्मपक्ष में आत्मा स्थिर है। व्यवहारपक्ष में तृणादि नश्वर स्वभाव के हैं, इसलिए भग्न हो जाते हैं, अध्यात्मपक्ष के
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १०१-१०२