Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[४] 'भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं वंदइ नमंसइ, २ एवं वदासी पहू णं भंते! खंदए कच्चायणसगोत्ते देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ?
हंता,
१७८]
पभू ।
[१८-१] (भंगवान् महावीर जहाँ विराजमान थे, वहाँ क्या हुआ ? यह शास्त्रकार बताते हैं'हे गौतम! ', इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने ज्येष्ठ शिष्य श्री इन्द्रभूति अनगार को सम्बोधित करके कहा— 'गौतम ! (आज) तू अपने पूर्व के साथी को देखेगा।'
[१८-२] (गौतम — ) 'भगवन्! मैं (आज) किसको देखूंगा ?"
[ भगवान् ] गौतम ! तू स्कन्दक (नामक तापस) को देखेगा ।
[१८ - ३ प्र.] (गौतम) 'भगवन्! मैं उसे कब, किस तरह से और कितने समय बाद देखूंगा ?"
[१८-३ उ.] ‘गौतम ! उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। जिसका वर्णन जान लेना चाहिए। उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक नामक परिव्राजक रहता था। इससे सम्बन्धित पूरा वृत्तान्त पहले के अनुसार जान लेना चाहिए। यावत् उस स्कन्दक परिव्राजक ने जहाँ मैं हूँ, वहाँ मेरे पास आने के लिए संकल्प कर लिया है। वह अपने स्थान से प्रस्थान करके मेरे पास आ रहा है । वह बहुत-सा मार्ग पार करके (जिस स्थान में हम हैं उससे अत्यन्त निकट पहुँच गया है। अभी वह मार्ग में चल रहा है। वह बीच के मार्ग पर है । हे गौतम! तू आज ही उसे देखेगा ।'
[१८-४ प्र.] फिर 'हे भगवन् !' यों कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना - नमस्कार करके इस प्रकार पूछा—' भगवन् ! क्या वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर आगार (घर) छोड़कर अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ है ?'
[१८-४ उ.] 'हाँ, गौतम ! वह मेरे पास अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ है।'
१९. जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमट्ठ परिकहेइ तावं च से खंदए कच्चायणसगोत्ते तं देसं हव्वमागते ।
[१९] जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी भगवान् गौतम स्वामी से यह (पूर्वोक्त) बात कह ही रहे थे, कि इतने में वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक उस स्थान (प्रदेश) में (भगवान् महावीर के पास) शीघ्र आ पहुंचे।
२०. [१] तए णं भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं अदूरआगयं जाणित्ता खिप्पामेव अब्भुट्ठेति, खिप्पामेव पच्चुवगच्छइ, २ जेणेव खंदए कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ, २त्ता खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी- 'हे खंदया!, सागयं खंदया!, सुसागयं खंदया! अणुरागयं खंदया!, सागयमणुरागयं खंदया!, से नूणं तुमं खंदया !