Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय शतक : उद्देशक-१]
[१८३ इस प्रकार द्रव्यजीव और क्षेत्रजीव अन्तसहित है, तथा काल-जीव और भावजीव अन्तरहित है। अतः हे स्कन्दक! जीव अन्तसहित भी है और अन्तरहित भी है।'
[२४-३] हे स्कन्दक! तुम्हारे मन में यावत् जो यह विकल्प उठा था कि सिद्धि (सिद्धशिला) सान्त है या अन्तरहित है ? उसका भी यह अर्थ (समाधान) है—हे स्कन्दक! मैंने चार प्रकार की सिद्धि बताई है। वह इस प्रकार है-द्रव्यसिद्धि, क्षेत्रसिद्धि, कालसिद्धि और भावसिद्धि।१-द्रव्य से सिद्धि एक है, अतः अन्तसहित है। २-क्षेत्र से-सिद्धि ४५ लाख योजन की लम्बी चौड़ी है, तथा एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार दो सौ उनचास योजन से कुछ विशेषाधिक (झााझेरी) है, अतः अन्सहित है। ३-काल से-ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें सिद्धि नहीं थी, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसमें सिद्धि नहीं है तथा ऐसा कोई काल नहीं होगा, जिसमें सिद्धि नहीं रहेगी। अतः वह नित्य है, अन्तरहित है। ४-भाव से सिद्धि-जैसे भावलोक के सम्बन्ध में कहा था, उसी प्रकार है। (अर्थात् वह अनन्त वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुरुलघु-अगुरुलघु-पर्यायरूप है तथा अन्तरहित है) इस प्रकार द्रव्यसिद्धि और क्षेत्रसिद्धि अन्तसहित है तथा कालसिद्धि और भावसिद्धि अन्तरहित है। इसलिए हे स्कन्दक! सिद्धि अन्तसहित भी है और अन्तरहित भी है।
[२४-४] हे स्कन्दक! फिर तुम्हें यह संकल्प-विकल्प उत्पन्न हआ था कि सिद्ध अन्तसहित है
त है ? उसका अर्थ (समाधान) भी इस प्रकार है (यहाँ सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए) यावत्-द्रव्य से एक सिद्ध अन्तसहित है। क्षेत्र से सिद्ध असंख्यप्रदेश वाले तथा असंख्य आकाश-प्रदेशों का अवगाहन किये हुए हैं, अतः अन्तसहित हैं। काल से—(कोई भी एक) सिद्ध आदिसहित और अन्तरहित है। भाव से सिद्ध अनन्त ज्ञानपर्यायरूप हैं, अनन्त दर्शनपर्यायरूप हैं, यावत्-अनन्त-अगुरुलघुपर्यायरूप हैं तथा अन्तरहित हैं। अर्थात्-द्रव्य से और क्षेत्र से सिद्ध अन्तसहित हैं तथा काल से और भाव से सिद्ध अन्तरहित हैं। इसलिए हे स्कन्दक! सिद्ध अन्तसहित भी हैं और अन्तरहित भी हैं।
२५. जे वि य ते खंदया! इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए जाव समुप्पज्जित्था केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्डति वा हायति वा ? तस्स वि य णं अयमढे एवं खलुखंदिया! मए दुविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा बालमरणे य पंडितमरणे य।
_[२५] और हे स्कन्दक! तुम्हें जो इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, यावत्-संकल्प उत्पन्न हुआ था कि कौन-से मरण से मरते हुए जीव का संसार बढ़ता है और कौन-से मरण से मरते हुए जीव का संसार घटता है? उसका भी अर्थ (समाधान) यह है—हे स्कन्दक! मैंने दो प्रकार के मरण बतलाये हैं। वे इस प्रकार हैं-बालमरण और पण्डितमरण।
२६. से किं तं बालमरणे?
बालमरणे दुवालसविहे प०, तं जहा-वलयमरणे १ वसट्टमरणे २ अंतोसल्लमरणे ३ तब्भवमरणे ४ गिरिपडणे ५ तरुपडणे ६ जलप्पवेसे ७ जलणप्पवेसे ८ विसभक्खणे ९ सत्थोवाडणे १० वेहाणसे ११ गद्धपढे १२।
इच्चेतेणं खंदया! दुवालसविहेणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं
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