Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आत्मा समुद्घात क्यों करता है?—जैसे किसी पक्षी की पाँखों पर बहुत धूल चढ़ गई हो, तब वह पक्षी अपनी पाँखें फैला (फड़फड़ा) कर उस पर चढ़ी हुई धूल झाड़ देता है, इसी प्रकार यह
आत्मा, बद्ध कर्म के अणुओं को झाड़ने के लिए समुद्घात नाम की क्रिया करता है। आत्मा असंख्यप्रदेशी होकर भी नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर-परिमित होता है। आत्मीय प्रदेशों में संकोचविकासशक्ति होने से जीव के शरीर के अनुसार वे व्याप्त होकर रहते हैं। आत्मा अपनी विकास शक्ति के प्रभाव से सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हो सकता है। कितनी ही बार कुछ कारणों से आत्मा अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर भी फैलाता है और वापिस सिकोड़ (समेट) लेता है। इसी क्रिया को जैन परिभाषा में समुद्घात कहते हैं। ये समुद्घात सात हैं
१.वेदना-समुद्घात–वेदना को लेकर होने वाले समुद्घात को वेदनासमुद्घात कहते हैं, यह असातावेदनीय कर्मों को लेकर होता है। तात्पर्य यह है कि वेदना से जब जीव पीड़ित हो, तब वह अनन्तानन्त (असातावेदनीय) कर्मस्कन्धों से व्याप्त अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर के भाग में भी फैलाता है। वे प्रदेश मुख, उदर आदि के छिद्रों में तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तरालों में भरे रहते हैं। तथा लम्बाई-चौड़ाई (विस्तार) में शरीरपरिमित क्षेत्र में व्याप्त होते हैं। जीव एक अन्तर्मुहूर्त तक इस अवस्था में ठहरता है। उस अन्तर्मुहूर्त में वह असातावेदनीय कर्म के प्रचुर पुद्गलों को (उदीरणा से खींचकर उदयावलिका में प्रविष्ट करके वेदता है, इस प्रकार) अपने पर से झाड़ देता (निर्जरा कर लेता) है। इसी क्रिया का नाम वेदनासमुद्घात है।
२. कषाय-समुद्घात क्रोधादि कषाय के कारण मोहनीयकर्म के आश्रित होने वाले समुद्घात को कषायसमुद्घात कहते हैं । अर्थात् तीव्र कषाय के उदय से ग्रस्त जीव जब क्रोधादियुक्त दशा में होता है, तब अपने आत्मप्रदेशों को बाहर फैलाकर तथा उनसे मुख, पेट आदि के छिद्रों में एवं कान तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तरालों में भर कर शरीर परिमित लम्बे व विस्तृत क्षेत्र में व्याप्त होकर जीव अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, उतने समय में प्रचुर कषाय-पुद्गलों को अपने पर से झाड़ देता है—निर्जरा कर लेता है। वही क्रिया कषायसमुद्घात है।
३. मारणान्तिक-समुद्घात–मरणकाल में अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट आयुकर्म के आश्रित होने वाले समुद्घात को मारणान्तिक-समुद्घात कहते हैं। आयुष्य (कर्म) भोगते-भोगते जब अन्तर्मुहूर्त भर आयुष्य शेष रहता है, तब अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकालता है। वे प्रदेश मुख और उदर के छिद्रों तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तराल में भर कर विष्कम्भ (घेरा) और मोटाई में शरीर की अपेक्षा कम से कम अंगुल के असंख्यात भाग जितनी मोटी और अधिक से अधिक असख्य योजन मोटी जगह में व्याप्त होकर जीव अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, उतने समय में आयुष्यकर्म के प्रभूत पुद्गलों को अपने पर से झाड़ कर आयुकर्म की निर्जरा कर लेता है, इसी क्रिया को मारणान्तिक-समुद्घात कहते हैं।
४. वैक्रिय-समुद्घात—विक्रियाशक्ति का प्रयोग प्रारम्भ करने पर वैक्रियशरीरनामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात। वैक्रिय लब्धि वाला जीव अपने जीर्ण प्रायः शरीर को पुष्ट एवं सुन्दर बनाने की इच्छा से अपने आत्मप्रदेशों को बाहर एक दण्ड के आकार में निकालता है। उस दण्ड की चौड़ाई और मोटाई तो अपने शरीर जितनी ही होने देता है, किन्तु लम्बाई संख्येय योजन करके वह अन्तर्मुहूर्त