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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में रही हुई गुप्त बात मुझे शीघ्र कह दी, जिसे हे स्कन्दक! मैं तुम्हारी उस गुप्त बात को जानता हूँ।'
[२०-३] तत्पश्चात् कात्यायनगोत्रीय स्कन्धक परिव्राजक ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा "हे गौतम! (चलो) हम तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान्, महावीर स्वामी के पास चलें, उन्हें वन्दना-नमस्कार करें, यावत्-उनकी पर्युपासना करें।"
(गौतम स्वामी—) 'हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो। (इस शुभकार्य में) विलम्ब न करो।'
[२०-४] तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक के साथ जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ जाने का संकल्प किया।
विवेचन श्री गौतमस्वामी द्वारा स्कन्दक परिव्राजक का स्वागत और दोनों का परस्पर वार्तालाप—प्रस्तुत तीन सूत्रों (१८ से २० तक) में शास्त्रकार ने स्कन्दक परिव्राजक से पूर्वापर सम्बद्ध निम्नोक्त विषयों का क्रमशः प्रतिपादन किया है
१. श्री भगवान् महावीर द्वारा गौतमस्वामी को स्कन्दक परिव्राजक का परिचय और उसके
निकट भविष्य में शीघ्र आगमन का संकेत। २. श्री गौतमस्वामी द्वारा स्कन्दक के निर्ग्रन्थधर्म में प्रव्रजित होने की पृच्छा और समाधान। ३. श्री गौतमस्वामी द्वारा अपने पूर्वसाथी स्कन्दक परिव्राजक के सम्मुख जाकर सहर्ष भव्य
स्वागत। ४. स्कन्दक परिव्राजक और गौतम स्वामी का मधुर वार्तालाप। ५. स्कन्दक द्वारा श्रद्धाभक्तिवश भगवान् महावीर की सेवा में पहुंचने का संकल्प, श्री गौतम
स्वामी द्वारा उसका समर्थन और प्रस्थान। विशेषार्थ-रहस्सकडं-गुप्त किया हुआ, केवल मन में अवधारित। भगवान् द्वारा स्कन्दक की मनोगत शंकाओं का समाधान
२१. तेणं कालेणं २ समणे भगवं महावीरे वियडभोई याऽवि होत्था। तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स वियडभोगिस्स सरीरयं ओरालं सिंगारं कल्लाणं सिवं धण्णं मंगल्लं सस्सिरीयं अणलंकियविभूसियं लक्खण-वंजणगुणोववेयं सिरीए अतीव २ उवसोभेमाणं चिट्ठइ।
[२१] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर व्यावृत्तभोजी (प्रतिदिन आहार करने वाले) थे। इसलिए व्यावृत्तभोजी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का शरीर उदार (प्रधान), शृंगाररूप, अतिशयशोभासम्पन्न, कल्याणरूप, धन्यरूप, मंगलरूप बिना अलंकार के ही सुशोभित, उत्तम लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त तथा शारीरिक शोभा से अत्यन्त शोभायमान था।
२२. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स वियडभोगिस्स
(क) भगवती गुजराती टीकानुवाद (पं. बेचरदासजी) खण्ड १, पृ. २४९-२५० (ख) भगवती मूलपाठ टिप्पण (पं. बेचरदासजी) भाग १ पृ.८०-८१