Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय शतक : उद्देशक - १]
[ १७१
हंता, गोयमा ! मडाई णं नियंठे जाव पुणरवि इत्तत्थं हव्वमागच्छइ ।
[८-१ प्र.] भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया, संसार के प्रपंचों का निरोध नहीं किया, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार - वेदनीयकर्म क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जिसका संसार - वेदनीय कर्म व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जो निष्ठितार्थ (सिद्धप्रयोजनकृतार्थ) नहीं हुआ, जिसका कार्य (करणीय) समाप्त नहीं हुआ; ऐसा मृतादि (अचित्त, निर्दोष आहार करने वाला) अनगार पुनः मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त होता है ?
[८ - १ उ.] हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला मृतादी निर्ग्रन्थ फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त होता है।
[२] से णं भंते! किं ति वत्तव्वं सिया ?
गोयमा ! पाणे त्ति वत्तव्वं सिया, भूते त्ति वत्तव्वं सिया, जीवे त्ति वत्तव्वं सिया, सत्ते त्ति वत्तव्वं सिया, विष्णू ति वत्तव्वं सिया, वेदा त्ति वत्तव्वं सिया - पाणे भूए जीवे सत्ते विण्णू वेदा ति वत्तव्वं सिया ।
सेकेणणं भंते! पाणे त्ति वत्तव्वं सिया जाव वेदा ति वत्तव्वं सिया ?
गोयमा ! जम्हा आणमइ वा पाणमइ वा उस्ससइ वा नीससइ वा तम्हा पाणे ति वत्तव्वं सिया । जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए ति वत्तव्वं सिया । जम्हा जीवे जीवइ जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवइ तम्हा जीवे ति वत्तव्वं सिया जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मे हिं तम्हा सत्ते त्ति वत्तव्वं सिया । जम्हा तित्त- कडुय- कसायंबिल - महुरे रसे जाणइ तम्हा विण्णू ति वत्तव्वं सिया। जम्हा वेदेइ य सुह- दुक्खं तम्हा वेदा ति वत्तव्वं सिया । से तेणट्टेणं जाव पाणे त्ति वत्तव्वं सिया जाव वेदा ति वत्तव्वं सिया ।
[८-२ प्र.] भगवन् ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए ?
[८-२ उ.] गौतम ! उसे कदाचित् 'प्राण' कहना चाहिए, कदाचित् 'भूत' कहना चाहिए, कदाचित् 'जीव' कहना चाहिए, कदाचित् 'सत्व' कहना चाहिए, कदाचित् 'विज्ञ' कहना चाहिए, कदाचित् 'वेद' कहना चाहिए, और कदाचित् 'प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, विज्ञ और वेद' कहना चाहिए ।
[प्र.] हे भगवन्! उसे 'प्राण' कहना चाहिए, यावत् – 'वेद' कहना चाहिए, इसका क्या कारण
है ?
[उ.] गौतम ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ का जीव, बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास तथा निःश्वास लेता और छोड़ता है, इसलिए उसे 'प्राण' कहना चाहिए। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यकाल में रहेगा तथा वह होने के स्वभाववाला है) इसलिए उसे 'भूत' कहना चाहिए। तथा वह जीव होने से जीता है, जीवत्व एवं आयुष्यकर्म का अनुभव करता है, इसलिए उसे 'जीव' कहना चाहिए। वह शुभ और अशुभ कर्मों से सम्बद्ध है, इसलिए उसे 'सत्व' कहना चाहिए। वह तिक्त, ( तीखा ) कटु, कषाय (कसैला), खट्टा और मीठा, इन रसों का वेत्ता (ज्ञाता) है, इसलिए उसे 'विज्ञ' कहना चाहिए, तथा वह