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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है।
विवेचन-मृगघातकादि को लगने वाली क्रियाओं के सम्बन्ध में विचार—प्रस्तुत पाँच सूत्रों (४ से ८ तक) में मृगघातक, पुरुषघातक आदि को लगने वाली क्रियाओं के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गए हैं। प्रश्नों का क्रम इस प्रकार है(१) मृगवध के लिए जाल फैलाने, मृगों को बांधने तथा मारने वालों को लगने वाली
क्रियाएँ। (२) तिनके इकट्ठे करके आग डालने एवं जलाने वाले को लगने वाली क्रियाएँ। (३) मृगों को मारने हेतु बाण फेंकने, बींधने और मारने वाले को लगने वाली क्रियाएँ। (४) बाण को खींचकर खड़े हुए पुरुष का मस्तक कोई अन्य पुरुष पीछे से आकर खड्ग से
काट डाले, इसी समय वह बाण उछल कर यदि मृग को बींध डाले तो मृग मारने वाला मृगवैर से स्पृष्ट और पुरुष को मारने वाला पुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, उनको लगने वाली
क्रियाएँ। (५) बरछी या तलवार द्वारा किसी पुरुष का मस्तक काटने वाले को लगने वाली क्रियाएँ।
षट्मास की अवधि क्यों?—जिस पुरुष के प्रहार से मृगादि प्राणी छह मास के भीतर मर जाए तो उसके मरण में वह प्रहार निमित्त माना जाता है। इसलिए मारने वाले को पाँचों क्रियाएँ लगती हैं, किन्तु वह मृगादि प्राणी छह महीने के बाद मरता है तो उसके मरण में वह प्रहार निमित्त नहीं माना जाता, इसलिए उसे प्राणतिपातिकी के अतिरिक्त शेष चार क्रियाएँ ही लगती हैं। यह कथन व्यवहारनय की दृष्टि से है, अन्यथा उस प्रहार के निमित्त से जब कभी भी मरण हो, उसे पाँचों क्रियाएँ लगती हैं।
आसत्रवधक बरछी या खड्ग से मस्तक काटने वाला पुरुष आसन्नवधक होने के कारण तीव्र वैर से स्पृष्ट होता है। उस वैर के कारण वह उसी पुरुष द्वारा अथवा दूसरे के द्वारा उसी जन्म में या जन्मान्तर में मारा जाता है।
पंचक्रियाएँ (१) कायिकी-काया द्वारा होने वाला सावध व्यापार, (२) आधिकरणिकी हिंसा के साधन शस्त्रादि जुटाना, (३) प्राद्वेषिकी तीव्र द्वेष भाव से लगने वाली क्रिया,(४)पारितापनिकी किसी जीव को पीड़ा पहुँचाना, और (५)प्राणातिपातिकी जिस जीव को मारने का संकल्प किया था, उसे मार डालना। अनेक बातों में समान दो योद्धाओं में जय-पराजय का कारण
९.दो भंते! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिव्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धिं संगामं संगामेंति, तत्थ णं एगे पुरिसे पराइणइ एगे पुरिसे पराइज्जइ, से कहमेयं भंते! एवं ?
गोतमा! सवीरिए पराणिति, अवीरिए पराइज्जति। से केणढेणं जाव पराइज्जति? गोयमा! जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माइं नो बद्धाइं नो पुट्ठाई जाव नो अभिसमन्नागताइं, नो उदिण्णाइं, उवसंताई भवंति से णं पुरिसे परायिणति; जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माइं बद्धाई १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति ९३, ९४