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प्रथम शतक : उद्देशक-९]
[१५३ अज्जो! पत्तियाहि अज्जो! रोएहि अज्जो! से जहेतं अम्हे वदामो।
[२२-२] तब उन स्थविर भगवन्तों ने कालास्यवेषिपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा-'हे आर्य! हम जैसा कहते हैं उस पर वैसी ही श्रद्धा करो, आर्य! उस पर प्रतीति करो, आर्य! उसमें रुचि रखो।'
२३[१] तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, २ एवं वदासी इच्छामि णं भंते! तुब्भं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपजित्ताणं विहरित्तए।
अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।
[२३-१] तत्पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों को वन्दना की, नमस्कार किया और तब वह इस प्रकार बोले-'हे भगवन्! पहले मैंने (भ. पार्श्वनाथ का) चातुर्याम-धर्म स्वीकार किया है, अब मैं आपके पास प्रतिक्रमणसहित पंचमहाव्रतरूप धर्म स्वीकार करके विचरण करना चाहता हूँ।'
(स्थविर-) हे देवानुप्रिय! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो। परन्तु (इस शुभकार्य में) विलम्ब (प्रतिबन्ध) न करो।'
[२]तए णं से कालसवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
[२३-२] तदनन्तर कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने स्थविर भगवन्तों को वन्दना की, नमस्कार किया और फिर चातुर्याम धर्म के स्थान पर प्रतिक्रमणसहित पंचमहाव्रत वाला धर्म स्वीकार किया और विचरण करने लगे।
२४. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ, २ जस्सट्ठाए कीरति नग्गभावे मुण्डभावे अण्हाणयं अदंतधुवणयं अच्छत्तयं अणोवाहणयं भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्टसेज्जा केसलोओ बंभचेरवासो परघरपवेसो लद्धावलद्धी, उच्चावया गामकंटगा बावीसं परिसहोवसग्गा अहियासिज्जंति तमढं आराहेइ, २ चरमेहिं उस्सास-नीसासेहिं सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे। ..
_ [२४] इसके पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय (साधुत्व) का पालन किया और जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, अदन्तधावन, छत्रवर्जन, पैरों में जूते न पहनना, भूमिशयन, फलक (पट्टे) पर शय्या, काष्ठ पर शयन, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षार्थ गृहस्थों के घरों में प्रवेश, लाभ और अलाभ (सहना) (अभीष्ट भिक्षा प्राप्त होने पर हर्षित न होना और भिक्षा न मिलने पर खिन्न न होना), अनुकूल और प्रतिकूल, इन्द्रियसमूह के लिए कण्टकसम चुभने वाले कठोर शब्दादि इत्यादि २२ परीषहों को सहन करना, इन सब (साधनाओं) का स्वीकर किया, उस अभीष्ट प्रयोजन की सम्यक्रूप से आराधना की और अन्तिम उच्छ्वास-नि:श्वास द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए और समस्त दुःखों से रहित हुए।