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प्रथम शतक : उद्देशक-५]
[९५ की; दो, तीन, चार समय अधिक की यावत् संख्येय और असंख्येय समय अधिक की आयु भी मध्यम कहलाती है। यों मध्यम आयु (स्थिति) के अनेक विकल्प हैं। इसलिए कोई नारक दस हजार वर्ष की स्थिति (जघन्य) वाला, कोई एक समय अधिक १० हजार वर्ष की स्थिति वाला यों क्रमशः असंख्यात समय अधिक (मध्यम) स्थिति वाला और कोई उत्कृष्ट स्थिति वाला होने से नारकों के स्थितिस्थान असंख्य हैं।
समय-काल का वह सूक्ष्मतम अंश, जो निरंश है, जिसका दूसरा अंश सम्भव नहीं है, वह जैनसिद्धान्तानुसार 'समय' कहलाता है।
अस्सी भंग-एक समयाधिक जघन्यस्थिति वाले नारकों के क्रोधोपयुक्त आदि ८० भंग इस प्रकार हैं - असंयोगी ८ भंग (चार भंग एक-एक कषाय वालों के, चार भंग बहुत कषाय वालों के), द्विक संयोगी २४ भंग, त्रिकसंयोगी ३२ भंग, चतुष्कसंयोगी १६ भंग, यों कुल ८० भंग होते हैं।
नारकों के कहाँ, कितने भंग?- प्रत्येक नरक में जघन्य स्थिति वाले नारक सदा पाये जाते हैं, उनमें क्रोधोपयुक्त नैरयिक बहुत ही होते हैं। अत: उनमें मूलपाठोक्त २७ भंग क्रोधबहुवचनान्त वाले होते हैं। एक समय अधिक से लेकर संख्यात समय अधिक जघन्यस्थिति (मध्यम) वाले नारकों में पूर्वोक्त ८० भंग होते हैं। इनमें क्रोधादि-उपयुक्त नारकों की संख्या एक और अनेक होती है। इस स्थिति वाले नारक कभी मिलते हैं, कभी नहीं मिलते। असंख्यात समय अधिक की स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों में पूर्वोक्त २७ भंग पाये जाते हैं। इस स्थिति वाले नारक सदा काल पाये जाते हैं और वे बहुत होते हैं। द्वितीय-अवगाहनाद्वार
१०. इमीसे णं भंते! रतणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं केवतिया ओगाहणाठाणा पण्णत्ता।
__ गोयमा! असंखेज्जा ओगाहणाठाणा पण्णत्ता।तं जहा-जघन्निया ओगाहणा, पदेसाहिया जहन्निया ओगाहणा, दुप्पदेसाहिया जहन्निया ओगाहणा जाव असंखिज्जपदेसाहिया जहनिया ओगाहणा, तप्पाउग्गुक्कोसिया ओगाहणा।
[१० प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी (प्रथम नरकभूमि) के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकावास में रहने वाले नारकों के अवगाहनास्थान कितने कहे गए हैं ?
_ [१० उ.] गौतम! उनके अवगाहनास्थान असंख्यात कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-जघन्य अवगाहना (अंगुल के असंख्यातवें भाग), (मध्यम अवगाहना) एक प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना, द्विप्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना, यावत् असंख्यात प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना, तथा उसके योग्य उत्कृष्ट अवगाहना (जिस नारकवास के योग्य जो उत्कृष्ट अवगाहना हो)।
११. इमीसे णं भंते! रतणप्पभाए पुढ़वीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ६९-७०