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प्रथम शतक : उद्देशक-५]
[१०३ ज्ञान को साकारोपयोग कहा जा सकता है। ग्यारहवाँ-लेश्याद्वार २८. एवं सत्त वि पुढवीओ नेतव्वाओ।णाणत्तं लेसासु। गाहा
काऊ य दोसु, ततियाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए ।
पंचमियाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥७॥ [२८] रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में दस द्वारों का वर्णन किया है, उसी प्रकार से सातों पृथ्वियों (नरकभूमियों) के विषय में जान लेना चाहिए। किन्तु लेश्याओं में विशेषता है। वह इस प्रकार है
गाथार्थ-पहली और दूसरी नरकपृथ्वी में कापोतलेश्या है, तीसरी नरकपृथ्वी में मिश्र अर्थात्कापोत और नील, ये दो लेश्याएँ हैं, चौथी में नील लेश्या है, पाँचवीं में मिश्र अर्थात्-नील और कृष्ण, ये दो लेश्याएँ हैं, छठी में कृष्ण लेश्या और सातवीं में परम कृष्णलेश्या होती है।
विवेचन-लेश्या के सिवाय सातों नरकपृथ्वियों में शेष नौ द्वारों में समानता-प्रस्तुत सूत्र में सातों नरकपृथ्वियों में लेश्या के अतिरिक्त शेष नौ द्वारों का तथा उनसे सम्बन्धित क्रोधोपयुक्त आदि भंगों का वर्णन रत्नप्रभापृथ्वी के वर्णन के समान हैं। भवनपतियों की क्रोधोपयुक्तादि वक्तव्यतापूर्वक स्थिति आदि दस द्वार
२९. चउसट्ठीए णं भंते! असुरकुमारावाससतसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं केवतिया ठिइठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा! असंखेज्जा ठितिठाणा पण्णत्ता। तं जहा-जहन्निया ठिई जहा नेरतिया तहा, नवरं पडिलोमा भंगा भाणियव्वा-सव्वे वि ताव होज्जा लोभोवयुत्ता, अहवा लोभोवयुत्ता य मायोवउत्ते य, अहवा लोभोवयुत्ता य मायोवयुत्ता य। एतेणं नेतव्वं जाव थणियकुमारा, नवरं णाणत्तं जाणितव्वं।
[२९ प्र.] भगवन्! चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से एक-एक असुरकुमारावास में रहने वाले असुरकुमारों के कितने स्थितिस्थान कहे गये हैं ?
[२९ उ.] गौतम! उनके स्थितिस्थान असंख्यात कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि सब वर्णन नैरयिकों के समान जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इनमें जहाँ सत्ताईस भंग आते हैं, वहां प्रतिलोम (विपरीत) समझना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-समस्त असुरकुमार लोभोपयुक्त होते हैं, अथवा बहुत-से लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है; अथवा बहुत-से लोभोपयुक्त और मायोपयुक्त होते हैं, इत्यादि रूप (गम) से जानना चाहिए। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक समझना चाहिए। विशेषता यह है कि संहनन, संस्थान, लेश्या आदि में भिन्नता जाननी चाहिए।
१. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ७३ (ख)'आकारो-विशेषांशग्रहणशक्तिस्तेन सहेति साकारः, तद्विकलोऽनाकारः सामान्यग्राहीत्यर्थः।'
-भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ७३