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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
ओवास वात घण उदही पुढवी दीवा य सागरा वासा । नेरइयादी अस्थिय समया कम्माई लेस्साओ ॥१ ॥ दिट्ठी दंसण णाणा सण्ण सरीरा य जोग उवओगे । दव्व पदेसा पज्जव अद्धा, किं पुव्वि लोयंते ? ॥२॥ पुव्वि भंते! लोयंते पच्छा सव्वद्धा ? ० ।
[२०] इस प्रकार निम्नलिखित स्थानों में से प्रत्येक के साथ लोकान्त को जोड़ना चाहिए; यथा—(गाथार्थ) अवकाशान्तर, वात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर, वर्ष (क्षेत्र), नारक आदि जीव (चौबीस दण्डक के प्राणी), अस्तिकाय, समय, कर्म, लेश्या, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संज्ञा, शरीर, योग, उपयोग, द्रव्य, प्रदेश, पर्याय और काल (अद्धा); क्या ये पहले हैं और लोकान्त पीछे है ? अथवा हे भगवन् ! क्या लोकान्त पहले और सर्वाद्धा (सर्वकाल) पीछे है ?
२१. जहा लोयंतेणं संजोइया सव्वे ठाणा एते, एवं अलोयंतेण वि संजोएतव्वा सव्वे । [२१] जैसे लोकान्त के साथ (पूर्वोक्त) सभी स्थानों का संयोग किया, उसी प्रकार अलोकान्त के साथ इन सभी स्थानों को जोड़ना चाहिए ।
२२. पुव्वि भंते! सत्तमे ओवासंतरे ? पच्छा सत्तमे तणुवाते ?
एवं सत्तमं ओवासंतरं सव्वेहिं समं संजोएतव्वं जाव' सव्वद्धाए ।
[२२ प्र.] भगवन् ! पहले सप्तम अवकाशान्तर है और पीछे सप्तम तनुवात है ?
[२२ उ.] हे रोह! इसी प्रकार सप्तम अवकाशान्तर को पूर्वोक्त सब स्थानों के साथ जोड़ना चाहिए। इसी प्रकार यावत् सर्वाद्धा तक समझना चाहिए ।
२३. पुव्वि भंते! सत्तमे तणुवाते पच्छा सत्तमे घणवाते ?
एयं पितहेव नेतव्वं जाव सव्वद्धा ।
[२३ प्र.] भगवन्! पहले सप्तम तनुवात है और पीछे सप्तम घनवात है ?
[२३ उ.] रोह ! यह भी उसी प्रकार यावत् सर्वाद्धा तक जानना चाहिए ।
२४. एवं उवरिल्लं एक्केक्कं संजोयंतेणं जो जो हेट्ठिल्लो तं तं छड्डेंतेणं नेयव्वं जाव अतीत- अणागतद्धा पच्छा सव्वद्धा जाव अणाणुपुव्वी एसा रोहा !
सेवं भंते! सेवं भंते त्ति ! जाव? विहरति ।
[२४] इस प्रकार ऊपर के एक-एक (स्थान) का संयोग करते हुए और नीचे का जो-जो स्थान हो, उसे छोड़ते हुए पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत् अतीत और अनागत काल और फिर सर्वाद्धा
१. 'जाव' पद से यहाँ सू. २० में अंकित गाथाद्वयगत पदों की योजना कर लेनी चाहिए।
२. 'जाव' पद 'भगवं महावीरं तिक्खुत्तो... पज्जुवासमाणे' पाठ का सूचक है।