Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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११४]
[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अल्प क्रोध, मान, माया और लोभ वाले, अत्यन्त निरहंकारता-सम्पन्न, गुरु समाश्रित (गुरु-भक्ति में लीन), किसी को संताप न पहुँचाने वाले, विनयमूर्ति थे। वे रोह अनगार ऊर्ध्वजानु (घुटने ऊपर करके)
और नीचे की ओर सिर झुकाए हुए, ध्यान रूपी कोष्ठक (कोठे) में प्रविष्ट, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर के समीप विचरते थे। तत्पश्चात् वह रोह अनगार जातश्रद्ध होकर यावत् भगवान् की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले
विवेचन रोह अनगार और भगवान् से प्रश्न पूछने की तैयारी प्रकृति से भद्र एवं विनीत रोह अनगार उत्कुटासन से बैठे ध्यान कोष्ठक में लीन होकर तत्त्वविचार कर रहे थे, तभी उनके मन में कुछ प्रश्न उद्भूत हुए, उन्हें पूछने के लिए वे विनयपूर्वक भगवान् के समक्ष उपस्थित हुए; यही वर्णन प्रस्तुत सूत्र में प्रस्तुत किया गया है। रोह अनगार के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर
१३. पुव्वि भंते ! लोए ? पच्छा अलोए ! पुस्वि अलोए ? पच्छा लोए ?
रोहा ! लोए य अलोए य पुव्वि पेते, पच्छा पेते, दो वि ते सासता भावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा!
[१३ प्र.] भगवन्! पहले लोक है, और पीछे अलोक है ? अथवा पहले अलोक और पीछे लोक है ?
[१३ उ.] रोह ! लोक और अलोक, पहले भी हैं और पीछे भी हैं। ये दोनों ही शाश्वतभाव हैं। हे रोह! इन दोनों में यह पहला और यह पिछला', ऐसा क्रम नहीं है।
१४. पुट्वि भंते ! जीवा ? पच्छा अजीवा ? पुट्विं अजीवा ? पच्छा जीवा ? जहेव लोए य अलोए य तहेव जीवा य अजीवा य। [१४ प्र.] भगवन्! पहले जीव और पीछे अजीव है, या पहले अजीव और पीछे जीव है ?
[१४ उ.] रोह ! जैसा लोक और अलोक के विषय में कहा है, वैसा ही जीवों और अजीवों के विषय में समझना चाहिए।
१५. एवं भवसिद्धिया य अभवसिद्धिया य, सिद्धी असिद्धी, सिद्धा असिद्धा।
[१५] इसी प्रकार भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक, सिद्धि और असिद्धि तथा सिद्ध और संसारी के विषय में भी जानना चाहिए।
१६. पुट्वि भंते ! अंडए ? पच्छा कुक्कुडी ? पुव्वि कुक्कुडी ? पच्छा अंडए ? रोहा ! से णं अंडए कतो?
१.
भवसिद्धिया-भविष्यतीति भवा, भवसिद्धिः निर्वृत्तिर्येषां ते, भव्या इत्यर्थः। भविष्य में जिनकी सिद्धि-मुक्ति होगी, वे भव्य भवसिद्धिक होते हैं।