Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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_[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-भवनपति से लेकर वैमानिक देवों तक के क्रोधोपयुक्त आदि भंग निरूपणपूर्वक स्थिति-अवगाहनादि दस द्वार प्ररूपण-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. २९ से ३६ तक) द्वारा शास्त्रकार ने स्थिति, अवगाहना आदि दस द्वारों का प्ररूपण करते हुए उनसे सम्बन्धित क्रोधोपयुक्त आदि भंगों का प्रतिपादन किया है।
भवनपति देवों की प्रकृति नारकों की प्रकृति से भिन्न-नरक के जीवों में क्रोध अधिक होता है, वहाँ भवनपति आदि देवों में लोभ की अधिकता होती है। इसलिए नारकों में जहाँ २७ भंगक्रोध, मान, माया, लोभ इस क्रम से कहे गये थे, वहाँ देवों में इससे विपरीत क्रम से कहना चाहिए, यथा-लोभ, माया, मान और क्रोध। देवों की प्रकृति में लोभ की अधिकता होने से समस्त भंगों में 'लोभ' शब्द को बहुवचनान्त ही रखना चाहिए। यथा-असंयोगी एक भंग-१. सभी लोभी, द्विकसंयोगी ६ भंग-१. लोभी बहुत, मायी एक; २. लोभी बहुत, मायी बहुत; ३. लोभी बहुत, मानी एक; ४. लोभी बहुत, मानी बहुत; ५. लोभी बहुत, क्रोधी एक और ६. लोभी बहुत, क्रोधी बहुत।
त्रिकसंयोगी १२ भंग-१. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक; २. लोभी बहुत, मायी एक मानी बहुत; ३. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक; ४. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी बहुत;५. लोभी बहुत, मायी एक, क्रोधी एक; ६. लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक; ७. लोभी बहुत, मायी एक, क्रोधी एक; ८. लोभी बहुत, मायी बहुत, क्रोधी बहुत; ९. लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक; १०. लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत; ११. लोभी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी एक और १२. लोभी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी बहुत।
चतुःसंयोगी ८ भंग-१. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक, क्रोधी एक; २. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक, क्रोधी बहुत; ३. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी एक; ४. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी बहुत; ५. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक; ६. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत;७. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक और ८. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी बहुत।
अन्य द्वारों में अन्तर-असुरकुमारादि संहननरहित हैं, किन्तु उनके शरीरसंघातरूप से जो पुद्गल परिणमते हैं, वे इष्ट और सुन्दर होते हैं। उनके भवधारणीय शरीर का संस्थान समचतुरस्र होता है; उत्तरवैक्रिय शरीर किसी एक संस्थान में परिणत होता है। तथा असुरकुमारादि में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या होती है।
पृथ्वीकायादि के दश द्वार और क्रोधादियुक्त के भंग-इनके स्थितिस्थान आदि दशों ही द्वारों में अभंगक समझना चाहिए। केवल पृथ्वीकायसम्बन्धी लेश्याद्वार में तेजोलेश्या की अपेक्षा ८० भंग होते हैं। एक या अनेक देव देवलोक से च्यवकर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं तब तेजोलेश्या होती है। उनके एकत्वादि के कारण ८० भंग होते हैं । पृथ्वीकायिक में ३ शरीर-(औदारिक, तैजस्, कार्मण),