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प्रथम शतक : उद्देशक-५]
[९९ हैं ? इसका समाधान यह है कि उनमें शक्ति की मन्दता है तथा देश-काल आदि की प्रतिकूलता है, इस कारण वे शरीर का आकार सुन्दर बनाना चाहते हुए भी नहीं बना पाते, वह बेढंगा ही बनता है। उनका शरीर संहननरहित होता है, इसलिए उन्हें छेदने पर शरीर के पुद्गल अलग हो जाते हैं और पुनः मिल जाते हैं।
अस्थियों के विशिष्ट प्रकार के ढांचे को संहनन कहते हैं । अस्थियाँ केवल औदारिक शरीर में ही होती हैं और नारकों को औदारिक शरीर होता नहीं है। इस कारण वे संहननरहित कहे गए हैं। छठा-लेश्याद्वार
१८. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कति लेसाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा! एक्का काउलेस्सा पण्णत्ता। [१८ प्र.] भगवन्! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले नैरयिकों में कितनी लेश्याएँ कही गई
[१८ उ.] गौतम ! उनमें केवल एक कापोतलेश्या कही गई है।
१९. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव काउलेस्साए वट्टमाणा० ? • सत्तावीसं भंगा।
[१९ प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले कापोतलेश्या वाले नारक जीव क्या क्रोधोपयुक्त हैं, यावत् लोभोपयुक्त हैं ?
[१९ उ.] गौतम ! इनके भी सत्ताईस भंग कहने चाहिए।
विवेचन-नारकों का क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक छठा लेश्याद्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों में नारकों में लेश्या का निरूपण तथा उक्त लेश्या वाले नारकों के क्रोधोपयुक्त आदि २७ भंग बताये गये
हैं।
सातवाँ-दृष्टिद्वार
२०. इमीसे णं जाव किं सम्मट्टिी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छट्टिी ? तिण्णि वि।
[२० प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले नारक जीव क्या सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, या सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) हैं ?
[२० उ.] हे गौतम! वे तीनों प्रकार के (कोई सम्यग्दृष्टि, कोई मिथ्यादृष्टि और कोई मिश्रदृष्टि) होते हैं।
२१.[१] इमीसे णं जाव सम्मइंसणे वट्टमाणा नेरइया०? सत्तावीसं भंगा।
[२] एवं मिच्छइंसणे वि। १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ७२