Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम शतक : उद्देशक-१]
[२३, के आहार का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, दिशा, समय आदि की अपेक्षा से भी विचार किया गया है।
परिणत, चित, उपचित आदि-आहार का प्रसंग होने से यहां परिणत का अर्थ है- शरीर के साथ एकमेक होकर आहार का शरीररूप में पलट जाना। जिन पुद्गलों को आहाररूप में परिणत किया है, उनका शरीर में एकमेक होकर शरीर को पुष्ट करना चय (चित) कहलाता है। जो चय किया गया है, उसमें अन्यान्य पुद्गल एकत्रित कर देना उपचय (उपचित) कहलाता है।
आहार-शब्द यहाँ ग्रहण करने और उपभोग करने (खाने) दोनों अर्थों में प्रयुक्त है। प्रस्तुत में प्रत्येक पद के आहार से सम्बन्धित (१) आहारित, (२) आहारित-आह्रियमाण, (३) अनाहारितआहारिष्यमाण एवं (४) अनाहारित-अनाहारिष्यमाण, इन चारों प्रकार के पुद्गल विषयक चार-चार प्रश्न हैं।३
पुद्गलों का भेदन-अपवर्तनाकरण तथा उद्वर्तनाकरण (अध्यवसायविशेष) से तीव्र, मन्द, मध्यम रस वाले पुद्गलों को दूसरे रूप में परिणत (परिवर्तित) कर देना। जैसे-तीव्र को मन्द और मन्द को तीव्र बना देना।
पुद्गलों का चय-उपचय-यहाँ शरीर का आहार से पुष्ट होना चय और विशेष पुष्ट होना उपचय है। ये आहारद्रव्यवर्गणा की अपेक्षा जानना चाहिए।
अपवर्तन-अध्यवसायविशेष के द्वारा कर्म की स्थिति एवं कर्म के रस को कम कर देना। अपवर्तनाकरण से कर्म की स्थिति आदि कम की जाती है, उद्वर्तनाकरण से अधिक।
संक्रमण-कर्म की उत्तरप्रकृतियों का अध्यवसाय-विशेष द्वारा एक दूसरे के रूप में बदल जाना। यह संक्रमण (परिवर्तन) मूल प्रकृतियों में नहीं होता। उत्तरप्रकृतियों में भी आयुकर्म की उत्तरप्रकृतियों में नहीं होता तथा दर्शनमोह और चारित्रमोह में भी एक दूसरे के रूप में संक्रमण नहीं
होता। .
निधत्त करना-भिन्न-भिन्न कर्म-पुद्गलों को एकत्रित करके धारण करना। निधत्त अवस्था में उद्वर्तना और अपवर्तना, इन दो करणों से ही निधत्त कर्मों में परिवर्तन किया जा सकता है। अर्थात् इन दो करणों के सिवाय किसी अन्य संक्रमणादि के द्वारा जिसमें परिवर्तन न हो सके, कर्म की ऐसी अवस्था को निधत्त कहते हैं।
निकाचित करना-निधत्त किए गए कर्मों का ऐसा सुदृढ़ हो जाना कि, जिससे वे एक-दूसरे से पृथक न हो सकें, जिनमें कोई भी कारण कुछ भी परिवर्तन न कर सके। अर्थात्-कर्म जिस रूप में
१.
२. ३.
(क) भगवतीसूत्र अभय, वृत्ति, पत्रांक २० से २३ तक (ख) देखिये, प्रज्ञापना-आहारपद, पद २८, उद्दे. १ भगवतीसूत्र अभय. वृत्ति, पत्रांक २४ । (१) पूर्वाहत, (२) आह्रियमाण, (३) आहारिष्यमाण (४) अनाहत, (५) अनाह्रियमाण और (६) अनाहारिष्यमाण, इन ६ पदों के ६३ भंग होते हैं-एकपदाश्रित ६, द्विकसंयोग से १५, त्रिकसंयोग से २०, चतुष्कसंयोग से १५, पंचकसंयोग से ६ और षट्संयोग से एक।
-भगवती अ. वृत्ति अनुवाद, पृ.६२-६३